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04:48, 26 मई 2014 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=पुष्पिता
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
दरवाज़े
बने होते हैं
दस्तकों के लिए।
दस्तक से
तड़प उठते हैं
किवाड़ के रोम-रोम।
दरवाज़े
सुनना जानते हैं दस्तक
पर चुप रहते हैं
गरीब के सपनों की तरह।
दरवाज़े
जानते हैं
दस्तकों की भाषा।
सुनवाई
न होने पर
दरवाज़े छोड़ देते हैं दीवारें
और दीवारों के घर।
</poem>