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04:57, 26 मई 2014 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=पुष्पिता
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
औरत सहती रहती है
और चुप रहती है
जैसे रात।
औरत सुलगती रहती है
और शांत रहती है
जैसे चिंगारी।
औरत बढ़ती रहती है
सीमाओं में जीती रहती है
जैसे नदी।
औरत फूलती-फलती है
पर सदा भूखी रहती है
जैसे वृक्ष।
औरत झरती और बरसती रहती है
और सदैव प्यासी रहती है
जैसे बादल।
औरत बनाती है घर
पर हमेशा रहती है बेघर
जैसे पक्षी।
औरत बुलंद आवाज़ है
पर चुप रहती है
जैसे शब्द।
औरत जन्मती है आदमी
पर गुलाम रहती है सदा
जैसे बीज।
</poem>