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स्थापना / धर्मवीर भारती

389 bytes removed, 16:25, 12 दिसम्बर 2007
[नेपथ्य से उद्घोषणा तथा मंच पर नर्त्तक के द्वारा उपयुक्त भावनाट्य का प्रदर्शन। शंख-ध्वनि के साथ पर्दा खुलता है तथा मंगलाचरण के साथ-साथ नर्त्तक नमस्कार-मुद्रा प्रदर्शित करता है। उद्घोषणा के साथ-साथ उसकी मुद्राएँ बदलती जाती हैं।]
मंगलाचरण<br> नारायणम् नमस्कृत्य नरम् चैव नरोत्तमम्।<br> देवीम् सरस्वतीम् व्यासम् ततो जयमुदीयरेत्।<br> उद्घोषणा<br> जिस युग का वर्णन इस कृति में है<br> उसके विषय में विष्णु-पुराण में कहा है :<br> ततश्चानुदिनमल्पाल्प ह्रास<br> व्यवच्छेददाद्धर्मार्थयोर्जगतस्संक्षयो भविष्यति।’<br> उस भविष्य में<br> धर्म-अर्थ ह्रासोन्मुख होंगे<br> क्षय होगा धीरे-धीरे सारी धरती का।<br> ‘ततश्चार्थ एवाभिजन हेतु।’<br> सत्ता होगी उनकी।<br> जिनकी पूँजी होगी।<br> ‘कपटवेष धारणमेव महत्त्व हेतु।’<br> जिनके नकली चेहरे होंगे<br> केवल उन्हें महत्त्व मिलेगा।<br> ‘एवम् चाति लुब्धक राजा<br> सहाश्शैलानामन्तरद्रोणीः प्रजा संश्रियष्यवन्ति।’<br> राजशक्तियाँ लोलुप होंगी,<br> जनता उनसे पीड़ित होकर<br> गहन गुफाओं में छिप-छिप कर दिन काटेगी।<br> (गहन गुफाएँ वे सचमुच की या अपने कुण्ठित अंतर की)<br>
[गुफाओं में छिपने की मुद्रा का प्रदर्शन करते-करते नर्त्तक नेपथ्य में चला जाता है।]<br>
युद्धोपरान्त,<br>
यह अन्धा युग अवतरित हुआ<br> जिसमें स्थितियाँ, मनोवृत्तियाँ, आत्माएँ सब विकृत हैं<br> है एक बहुत पतली डोरी मर्यादा की<br> पर वह भी उलझी है दोनों ही पक्षों में<br> सिर्फ कृष्ण में साहस है सुलझाने का<br> वह है भविष्य का रक्षक, वह है अनासक्त<br> पर शेष अधिकतर हैं अन्धे<br> पथभ्रष्ट, आत्महारा, विगलित<br> अपने अन्तर की अन्धगुफाओं के वासी<br> यह कथा उन्हीं अन्धों की है; <br>
या कथा ज्योति की है अन्धों के माध्यम से<br>