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{{KKAarti|रचनाकार=KKDharmikRachna}}{{KKCatArti}}<poem> जय वृहस्पति देवा, ऊँ जय वृहस्पति देवा । देवा। छिन छिन भोग लगाऊँ, कदली फल मेवा ॥मेवा॥तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी ।अन्तर्यामी।जगतपिता जगदीश्वर, तुम सबके स्वामी ॥स्वामी॥चरणामृत निज निर्मल, सब पातक हर्ता ।हर्ता।सकल मनोरथ दायक, कृपा करो भर्ता ॥भर्ता॥तन, मन, धन अर्पण कर, जो जन शरण पड़े ।पड़े।प्रभु प्रकट तब होकर, आकर द्घार खड़े ॥खड़े॥दीनदयाल दयानिधि, भक्तन हितकारी ।हितकारी।पाप दोष सब हर्ता, भव बंधन हारी ॥हारी॥सकल मनोरथ दायक, सब संशय हारो ।हारो।विषय विकार मिटाओ, संतन सुखकारी ॥सुखकारी॥जो कोई आरती तेरी, प्रेम सहित गावे ।गावे।जेठानन्द आनन्दकर, सो निश्चय पावे ॥पावे॥
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