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|रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार
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|संग्रह=पद-रत्नाकर / भाग- 4 / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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<poem>कंस तमोमय का था काला पापचिह्न वह कारागार।
काल-कोठरी थी, उस में नियुक्त थे काले पहरेदार॥
भाद्रमास के कृष्णपक्ष की अँधियारी आठैं बुधवार।
काली अन्ध निशा थी, छाया अन्धकार था घोर अपार॥

अज-‌अविनाशी सर्वेश्वर प्रभु लेंगे अब मंगल अवतार।
अधिष्ठान कर प्रकृति निशा में , कर के निज माया-विस्तार॥
उसी समय छा गया कक्ष में सहसा शीतल दिव्य प्रकाश।
बदल गया सब कुछ क्षण में ही, करने लगी प्रकृति मृदु हास॥

काल हो गया परम सुशोभन, सभी शुभ गुणों से संयुक्त।
चन्द्र रोहिणी-स्थित थे, नभ में ग्रह-नक्षत्र शान्ति से युक्त॥
निर्मल हु‌ई दिशा‌एँ, तारे लगे जगमगाने आकाश।
नदियाँ हुर्‌ईं स्वच्छ-सलिला, ह्रद हु‌आ रात्रि में कमल-विकास॥

लदे वृक्ष कुसुमों से, पक्षी-भ्रमर कर उठे गान-गुँजार।
बहने लगी सर्व-सुखदा पवित्रतम सौरभमयी बयार॥
असुरद्रुह-सज्जन-मन सहसा हु‌ए प्रसन्न सहज स्वच्छन्द।
स्वर्ग बज उठी सुर-दुन्दुभियाँ जन्म अजन्मा के आनन्द॥

बिना बजाये हु‌ई निनादित मध्यनिशा वे अपने-‌आप।
किंञ्नरगण-गन्धर्व मुदित हो करने लगे गान-‌आलाप॥
विद्याधरी-‌अप्सरा‌एँ तब नाच उठीं अति सुमधुर ताल।
सुर-मुनि मुदित कर उठे श्लाघा, देख धरा का भाग्य विशाल॥

जलनिधि-जलधर मन्द-मधुर स्वर गाने लगे स्वसुख का गान।
हु‌ए प्रकट देवकी-‌उदर से सुन्दर मधुर स्वयं भगवान॥
उदय हु‌ए वैसे ही, जैसे षोडशकला-पूर्ण राकेश-
उगता प्राची में, न रह गया संतों को तम-पीड़ा-लेश॥

काले को जो उज्ज्वल करता, ले वह अद्भुत काला रंग।
देख सामने पुरुषों को स्वयं रह गये दम्पति दंग॥
कोमल, कमल-समान नेत्र हैं मुनि-मन-मोहन, दीर्घ, रसाल।
शङ्ख-गदा शुचि, पद्म-चक्र से शोभित चारों भुजा विशाल॥

वक्षःस्थल पर शोभित है श्रीवत्स-चिह्न अतिशय अभिराम।
गले सुशोभित कौस्तुभमणि की छिटक रही है विभा ललाम॥
नव-नीरद-घनश्याम कलेवर चमक रहा है शुचि रमणीय।
दमक रहा है सुन्दर तन पर दिव्य पीतपट अति कमनीय॥

मणि वैदूर्य अमूल्य विनिर्मित हैं किरीट, कुण्डल द्युतिमान।
कुंचित कुन्तल चमक रहे हैं उनसे दिनकर-किरण-समान ॥
कटि में है करधनी सुशोभित दिव्य रत्नमय, सुषमागार।
बाँहों में अंगद शोभित हैं, हाथों में कंकण श्री-सार॥

अंग-‌अंग आभरण-विभूषित, दीप्ति छा रही चारों ओर।
देख रूप वसुदेव-देव की हु‌ए अतुल आनन्द विभोर॥

</poem>
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