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05:10, 1 जून 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सरवर आलम राज़ 'सरवर'
|अनुवादक=
|संग्रह=एक पर्दा जो उठा / सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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<poem>
तेरा गुज़र इधर जो ब-रंग-ए-सबा हुआ
आई बहार, याद का पत्ता हरा हुआ
हर साँस आरज़ूओं का इक सिलसिला हुआ
इस तरह क़िस्मतों का मिरी फ़ैसला हुआ
अच्छा हुआ कि आप ने मुझ को भुला दिया
था ज़िन्दगी में इक यही कांटा लगा हुआ
तुम आये थे तो एक ज़माना था मेरे साथ
तुम क्या जुदा हुए मिरा साया जुदा हुआ
नब्ज़-ए-हयात,शम-ए-उम्मीद,आरज़ू-ए-वस्ल
अन्जाम सब का आशिक़ी में एक सा हुआ
अपने ही आँसुओं पे मुझे आ गई हँसी
कल रात मेरे साथ अजब माजरा हुआ!
करता है तेरा साया-ए-दीवार भी गुरेज़
मुझ सा न देह्र में कोई बे-आसरा हुआ
अन्जान जानबूझ के बन जाइए, हुज़ूर!
रह जाए किस लिए यही तस्मा लगा हुआ?
जो गम मिले ज़माने से सारे सिवा मिले
जो दिल मिला तो वो था ग़मों से भरा हुआ
जोश-ओ-ख़रोश है न वो पहले से वलवले
बैठे बिठाये आप को "सरवर" ये क्या हुआ?
</poem>