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|संग्रह=एक पर्दा जो उठा / सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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<poem>
आप आए याद की वो फ़ित्ना-सामानी गई
थी हमें दिन रात की जो इक परेशानी गई

अहल -ए-दिल उठ्ठे, जुनूँ की चाक-दामानी गई
वाये-हसरत! आरज़ूओं की ग़ज़ल-ख़्वानी गई

एतिबार-ए-हस्ती-ए-मौहूम इक अफ़्साना था
ग़ौर से खुद को जो देखा, सारी हैरानी गई

उम्र भर हम आशना-ए-गुल,ख़िज़ाँ दीदा रहे
गुलशन-ए-हस्ती में अपनी क़द्र कब जानी गई?

आह! ये मौज-ए-हवादिस की करम-फ़रमाईयाँ!
हम से अपनी शक्ल भी मुश्किल से पहचानी गई

किसको फ़ुर्सत है कि सोचे इम्तिहान-ए-देह्र में
ख़ू-ए-इन्सानी गई कि रूह-ए-इन्सानी गई?

मुझको क्या होगा भला हासिल बयान-ए-हाल से?
आप की महफ़िल में पहले कब मेरी मानी गई?

जब से वो आये हैं, तू बुत की तरह ख़ामोश है
ये बता "सरवर"! कहाँ तेरी हमा-दानी गई?
</poem>
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