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<poem>
(राग काफी-तीन ताल)

अरे मन-मधुप! छोड़ अज्ञान।
पीता रह पवित्र प्रभु-पद-पंकज-मकरन्द महान॥
जगके विविध विषय, जिनमें रत रहता तू सुख मान।
क्षणभंगुर, अपूर्ण हैं सारे, अतिशय दुःख-निधान॥
भ्रमवश ही लगते प्रिय तुझको धन-यश, पूजन-मान।
हैं विषमय मीठे मोदक ये, हरें ज्ञान-विज्ञान॥
भोगोंकी सुन्दरता और मधुरता कृत्रिम जान।
भजता रह करुणा-वरुणालय नित निरुपम भगवान॥
</poem>
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