“अपनी जगह से गिर कर<br>
कहीं के नहीं रहते<br>
केश, औरतें और नाखून” नाख़ून” -<br>
अन्वय करते थे किसी श्लोक को ऐसे<br>
हमारे संस्कृत टीचर।<br>
हम लड़कियाँ अपनी जगह पर।<br><br>
जगह ? जगह क्या होती है ?<br>
यह वैसे जान लिया था हमने<br>
अपनी पहली कक्षा में ही।<br><br>
जो छूट जाने पर औरत हो जाती है।<br><br>
कटे हुए नाखूनोंनाख़ूनों,<br>कंघी में फंस फँस कर बाहर आए केशों-सी<br>एकदम से बुहार दी जाने वाली ?<br><br>
घर छूटे, दर छूटे, छूट गए लोग-बाग<br>
छूटती गई जगहें<br>
लेकिन, कभी भी तो नेलकटर या कंघियों में<br>
फंसे फँसे पड़े होने का एहसास नहीं हुआ !<br><br>
परंपरा से छूट कर बस यह लगता है–<br>
ऐसी ही समझी-पढ़ी जाऊँ<br>
जैसे तुकाराम का कोई<br>
अधूरा अंभग !<br><br>