वह होटल के कमरे में दाखिल दाख़िल हुई<br>
अपने अकेलेपन से उसने<br>
बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाया।<br><br>
कमरे में अंधेरा था<br>
घुप्प अंधेरा था कुएं कुएँ का<br>
उसके भीतर भी !<br>
सारी दीवारें टटोली अंधेरे में<br>
लेकिन ‘स्विच’ कहीं नहीं था<br>
पूरा खुला था दरवाजादरवाज़ा<br>
बरामदे की रोशनी से ही काम चल रहा था<br>
सामने से गुजरा जो ‘बेयरा’ तो<br>
जैसे ही दरवाजा बंद हुआ<br>
बल्बों में रोशनी के खिल गए सहस्रदल कमल !<br>
“भला बंद होने से रोशनी का क्या है रिश्ता?” उसने सोचा।<br><br>
डनलप पर लेटी<br>
चटाई चुभी घर की, अंदर कहीं– रीढ़ के भीतर !<br>तो क्या एक राजकुमारी ही होती है हर औरत ?<br>
सात गलीचों के भीतर भी<br>
उसको चुभ जाता है<br>
कोई मटरदाना आदम आदिम स्मृतियों का ?<br>
पढ़ने को बहुत-कुछ धरा था<br>
पर उसने बांची टेलीफोन तालिका<br>
और जानना चाहा<br>
अंतरराष्ट्रीय दूरभाष का ठीक-ठीक खर्चा।ख़र्चा।<br><br>
फिर, अपनी सब डॉलरें खर्च ख़र्च करके<br>
उसने किए तीन अलग-अलग कॉल।<br><br>
“हैलो-हैलो, बेटे–<br>
पैकिंग के वक्त... सूटकेस में ही तुम ऊंघ गए थे कैसे...<br>
सबसे ज्यादा ज़्यादा याद आ रही है तुम्हारी<br>तुम हो मेरे सबसे प्यारे !”<br><br>
अंतिम दो पंक्तियाँ अलग-अलग उसने कहीं<br>
फिर, चौके में चिंतित, बर्तन खटकती अपनी माँ से।<br><br>
... अब उसकी हुई गिरफ्तारीगिरफ़्तारी<br>पेशी हुई खुदा ख़ुदा के सामने<br>कि इसी एक जुबां ज़ुबाँ से उसने<br>
तीन-तीन लोगों से कैसे यह कहा<br>–
“सबसे ज्यादा तुम हो प्यारे !”<br>
यह तो सरासर है धोखा<br>
सबसे ज्यादा माने सबसे ज्यादा !<br><br>
लेकिन, खुदा ख़ुदा ने कलम रख दी<br>
और कहा–<br>
“औरत है, उसने यह गलत ग़लत नहीं कहा !”<br><br>