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|रचनाकार=पूर्णिमा वर्मन
}}
[[Category:गीत]]{{KKCatGeet}}<poem>फिर नदी की बात सुन कर<br>चहचहाने लग गई है<br>यह हरी घाटी हवा से बात कर के<br>लहलहाने लग गई है<br>झर रहे <br>झरने हँसी के<br>उड़ रहे तूफ़ान में स्वर<br>रेशमी दुकूल जैसे<br>बादलों के चीर नभ पर<br>और धरती रातरानी को <br>सजाने लग गई है<br>यह हरी घाटी हवा से बात कर के<br>महमहाने लग गई है<br>गाड़ कर<br>पेड़ों के झंडे<br>बज रहे वर्षा के मादल<br>आँजती वातायनों की<br>चितवनों में सांझ काजल<br>और बूँदों की मधुर आहट<br>रिझाने लग गई है<br>यह हरी घाटी हवा से बात कर के<br>गुनगुनाने लग गई है<br><br/poem>
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