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बात हक़ की हो तो क्यों चन्द मकाँ तक पहुँचे
इस क़दर फैले की वह सारे जहाँ तक पहुँचे
गामज़न यूँ तो सभी जानिबे मंज़िल हैं मगर
ये अलग बात, कि अब कौनकोई, कहाँ तक पहुँचे
लोग भी कहते हैं, है भी वो यक़ीनन मुज़रिम
इतना शातिर है, कोई कैसे गुमाँ तक पहुँचे
है तो मसरूफ़ बहुत क़त्ल की तफ्तीश में वह
यह ज़रूरी नहीं क़ातिल के निशाँ तक पहुँचे
वक़्त-बेवक़्त चली आती हैं यादें अब भी
यह तसव्वुर लिए हम राज़े-निहाँ तक पहुँचे
दीनो मज़हब की न ताउम्र जिसे जिन्हें फ़िक्र रही
आख़िर-ए-वक़्त में आवाज़े अज़ाँ तक पहुँचे
कुछ नहीं, कुछ नहीं औक़ात मेरी कुछ भी नहीं हमारी लेकिन
रहमते हक़ के सहारे ही यहाँ तक पहुँचे
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