1,392 bytes added,
17:16, 29 जून 2014 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=प्रभुदयाल श्रीवास्तव
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatBaalKavita}}
<poem>गुन गुन धूप तोड़ लाती हैं,
सूरज से मिलकर आती हैं,
कितनी प्यारी लगें पतंगें,
अंबर में चकरी खाती हैं|
ऊपर को चढ़ती जाती हैं,
फर फर फिर नीचे आती हैं,
सर्र सर्र करतीं करती फिर,
नील गगन से बतयाती हैं|
डोरी के संग इठलाती हैं,
ऊपर जाकर मुस्काती हैं,
जैसे अंगुली करे इशारे,
इधर उधर उड़ती जाती हैं|
कभी काटती कट जाती हैं,
आवारा उड़ती जाती हैं,
बिना सहारे हो जाने पर,
कटी पतंगें कहलाती हैं|
तेज हवा से फट जाती हैं,
बंद हवा में गिर जाती हैं,
उठना गिरना जीवन का क्रम,
बात हमें यह समझाती हैं|</poem>