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17:46, 29 जून 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रभुदयाल श्रीवास्तव
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<poem>
मम्मी मुझको नहीं खेलने, देती है अब घर घूला|
ना ही मुझे बनाने देती ,गोबर मिट्टी का चूल्हा|
गपई समुद्दर क्या होता है,नहीं जानता अब कोई|
गिल्ली डंडे का टुल्ला तो, बचपन बिल्कुल ही भूला|
अब तो सावन खेल रहा है ,रात और दिन टी वी से|
आम नीम की डालों पर अब, कहीं नहीं दिखता झूला|
अब्ब्क दब्बक दांयें दीन का ,बिसरा खेल जमाने से|
अटकन चटकन दही चटाकन ,लगता है भूला भूला|
न ही झड़ी लगे वर्षा की, न ही चलती पुरवाई|
मौसम हुआ आज जादूगर ,वक्त हुआ लगड़ा लूला|
ऐसी चली हवा पश्चिम की, हम खुद को ही भूल गये|
गुड़िया अब ये नहीं जानती, क्या होता है रमतूला|</poem>