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17:48, 29 जून 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रभुदयाल श्रीवास्तव
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<poem>
एक गधे को मिली नौकरी,
दफ्तर के बाबू की|
सबसे अधिक कमाऊ थी जो,
वह कुर्सी काबू की|
काम कराने के बद्ले वह ,
जमकर रिश्वत लेता |
जितना खाता उसका आधा ,
साहब को वह देता |
साहब भालूराम मजे से,
सभी काम कर देता|
बाबू गधाराम था उसका,
सबसे बड़ा चहेता|
मौज मजे मेम भालू दादा ,
सुरा विदेशी पीते ,
और बुलाकर गधेराम को,
देशी पकड़ा देते|
देशी पीकर गधेराम का,
गला हो गया भोंपू|
इस कारण अब करते रहते,
दिन भर चेंपू चेंपू|
</poem>