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17:58, 29 जून 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रभुदयाल श्रीवास्तव
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<poem>
मिली नौकरी चूहेजी को,
बस के कंडेक्टर की|
लगे समझने बस को जैसे,
खेती हो वह घर की|
बस में बैठे सभी मुसाफिर,
उनसे टिकिट मंगाते|
पैसे तो वे सबसे लेते,
पर ना टिकिट बनाते|
पूछा लोगों ने भैयाजी
कैसी बेई मानी|
सरकारी पैसे से क्यों ये ,
करते छेड़ाखानी|
बोला..टिकिट बनाता तो हूं,
तुम तक पहुंच न पाते|
कागज़ खाने की आदत से,
टिकिट हमीं खा जाते|
उत्तर सुन ,लोगों ने पूछा,
नोट क्यों नहीं खाये|
लिये टिकिट के रुपये हैं तो,
उनको कहां छुपाये|
बगलें लगा झांकने चूहा,
छोड़ छाड़ बस भागा|
बिल्ली पीछे दौड़ पड़ी तो ,
मारा गया अभागा|
</poem>