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<poem>
केरा कै पात मोरा मन, बैरी कै काँट न उगाओ।
 
अबहीं पियासे नयन, नयनन कै पलक न झपाओ॥
आह भरैं कहि जायँ बतिया सारी,
 
भाठी जराय देय लोहेउ कै आरी,
 
यनकै अनोखी अगिन, दुखिया कै आह न जगाओ।
मरुथल जिनिगिया है रेत निसानी,
 
बाढ़ै पियसिया तौ झलकै जस पानी,
 
छले जायँ भोले हिरन, कंचन घट बिख न भराओ।
दरद हमार मोरे जियरा कै साथी,
 
जरि गवा तेल मुला बरी नहीं बाती,
 
थकि चली साँस कै चलन, जोति गये दीप न जराओ॥
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