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04:16, 1 सितम्बर 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=आशुतोष दुबे
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<poem>
हर बार का गिरना
कुछ फर्क से गिरना होता है
पहली बार शायद वेग की वजह से
गिरकर उठ जाते हैं जल्दी ही
और कोशिश होती है
जहाँ से जितने गिरे थे
उसी के नज़दीक -
उसी के आसपास -
पहुँच जाएँ फिर
उसके बाद का गिरना
उस तेज़ी को क्रमश:
खो देना है
जो पहली बार फिर से उठ खड़े होने में थी
अंत में हम पाते हैं
उठने का हर संकल्प ही भूमिसात हो जाता है
गिरना पुरानी बात हो जाती है
लुढ़कना सहज होता जाता है
</poem>