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तोड़ना और बनाना / प्रियदर्शन

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<poem>
बनाने में कुछ जाता है
नष्ट करने में नहीं
बनाने में मेहनत लगती है. बुद्धि लगती है, वक्त लगता है
तो़ड़ने में बस थोड़ी सी ताकत
और थोड़े से मंसूबे लगते हैं।
इसके बावजूद बनाने वाले तोड़ने वालों पर भारी पड़ते हैं
वे बनाते हुए जितना हांफते नहीं,
उससे कहीं ज्यादा तोड़ने वाले हांफते हैं।
कभी किसी बनाने वाले के चेहरे पर थकान नहीं दिखती
पसीना दिखता है, लेकिन मुस्कुराता हुआ,
खरोंच दिखती है, लेकिन बदन को सुंदर बनाती है।

लेकिन कभी किसी तोड़ने वाले का चेहरा
आपने ध्यान से देखा है?
वह एक हांफता, पसीने से तर-बतर बदहवास चेहरा होता है
जिसमें सारी दुनिया से जितनी नफरत भरी होती है,
उससे कहीं ज्यादा अपने आप से।

असल में तोड़ने वालों को पता नहीं चलता
कि वे सबसे पहले अपने-आप को तोड़ते हैं
जबकि बनाने वाले कुछ बनाने से पहले अपने-आप को बनाते हैं।
दरअसल यही वजह है कि बनाने का मुश्किल काम चलता रहता है
तोड़ने का आसान काम दम तोड़ देता है।

तोड़ने वालों ने बहुत सारी मूर्तियां तोड़ीं, जलाने वालों ने बहुत सारी किताबें जलाईं
लेकिन बुद्ध फिर भी बचे रहे, ईसा का सलीब बचा रहा, कालिदार और होमर बचे रहे।
अगर तोड़ दी गई चीजों की सूची बनाएं तो बहुत लंबी निकलती है
दिल से आह निकलती है कि कितनी सारी चीजें खत्म होती चली गईं-
कितने सारे पुस्तकालय जल गए, कितनी सारी इमारतें ध्वस्त हो गईं,
कितनी सारी सभ्यताएं नष्ट कर दी गईं, कितने सारे मूल्य विस्मृत हो गए

लेकिन इस हताशा से बड़ी है यह सच्चाई
कि फिर भी चीजें बची रहीं
बनाने वालों के हाथ लगातार रचते रहे कुछ न कुछ
नई इमारतें, नई सभ्यताएं, नए बुत, नए सलीब, नई कविताएं
और दुनिया में टूटी हुई चीजों को फिर से बनाने का सिलसिला।

ये दुनिया जैसी भी हो, इसमें जितने भी तोड़ने वाले हों,
इसे बनाने वाले बार-बार बनाते रहेंगे
और बार-बार बताते रहेंगे
कि तोड़ना चाहे जितना भी आसान हो, फिर भी बनाने की कोशिश के आगे हार जाता है।
</poem>
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