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07:26, 2 सितम्बर 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रियदर्शन
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<poem>
युद्ध हम सबने देखा
हम सब हुए आहत
हम सबने की निंदा
ताकि ख़ुद को हो तसल्ली
कि अब भी हमारे भीतर
है थोड़ी सी आंच ज़िंदा
बहुत दूर था मेसोपोटामिया
वहां हम कैसे जाते
रक्त में नहाई दजला-फुरात की
रुलाई कैसे सुन पाते
यों भी था शोर बहुत
ढेर सारे संदेशवाहक
जो दिख रहा था
जो आ रहा था
उस पर संदेह करते नाहक
हमने विरोध किए
हमने धरने दिए
घायल बच्चों और रोती मांओं की
चीख सुन रोया किए
और क्या कर सकते थे
ताक़तवर के आगे
बस प्रार्थना की
कि उसकी अंतरात्मा जागे
अगर न जागे
तो भी बनी रहे उसकी दया़
हम हैं कायर ये मानने में
काहे का शर्म कैसी हया
हम पर न आए
जो दूसरों पर आई आफत
किसी तरह बची रहे
हमारे लिए ये तसल्ली ये राहत
किसी कमबख़्त ईश्वर से
की जाने वाली ये दुआ
कि शुक्र है हमारे साथ
ये सब न हुआ
</poem>
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