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07:40, 2 सितम्बर 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रियदर्शन
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<poem>
सच है कि अकेली कविता बहुत कुछ नहीं कर सकती
हमारे समय में लड़ाइयों के जितने मोर्चे खुले हुए हैं
और वार करने की जितनी नई तरकीबें लोगो के पास हैं
खुद को बचाने के जितने सारे कवच-
उन सबको देखते हुए कविता एक निरीह सी कोशिश जान पड़ती है
एक ऐसी कोशिश जिस पर बहुत सारे हंसते हैं
और जिसका बहुत सारे अपने पक्ष में इस्तेमाल करते हैं।
कविता अब न किसी को डराती है
न किसी को जगाती है
वह न मिसाल बन सकती है न मशाल
ज्यादा से ज्यादा वह है एक ऐसा खयाल
जो आपको खुश करे तसल्ली दे
जिसे आप अपने बचे रहने की
तार-तार हो चुके सबूत की तरह देखें
यह भी सच है कि हमारा ज्यादातर समय कविता के बिना बीतता है
हमारी ज्यादातर लड़ाइयों में कविता काम नहीं आती
कई बार वह एक अनुपयोगी अनुषंग की तरह बची लगती है
जो डार्विन के विकासवाद के मुताबिक
सिकुड़ती-छीजती जा रही है
यह कह देना अहसास से कहीं ज्यादा चलन का मामला है
कि इसके बावजूद वह बची रहेगी
देती रहेगी दस्तक हमारी अंतरात्मा के बंद दरवाज़ों पर
कि किसी फुसफुसाहट की तरह नई हवाओ में भी हमें पुराने दिनों की याद दिलाती रहेगी
हमें हमसे मिलाती रहेगी
लेकिन सच्चाई यह है कि धीरे-धीरे जैसे ईश्वर की, वैसे ही कविता की भी
जगह घटती ही जा रही है जीवन में
ईश्वर से पैदा हुआ शून्य कविता भरती है
कविता से पैदा हुआ शून्य कौन भरेगा?
क्या कविता नहीं रहेगी तो
हमारा होना एक ब्लैकहोल में, किसी बुझे हुए सितारे की राख की तरह बचा रहेगा?
इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं, आपके पास हो तो हो
फिलहाल तो मैं बस इतना चाहता हूं कि मैं बना रहूं
और मुझमें मेरी कविताएं बनी रहें।
</poem>