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10:27, 2 सितम्बर 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रियदर्शन
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हममें से कुछ ऐसे भी हैं जो भगवान बनने की कोशिश में कुछ बेहतर इंसान बन गए।
हालांकि इससे यह साबित नहीं होता कि जो भगवान बनना चाहते हैं, वे बेहतर मनुष्य बनना चाहते हैं
अक्सर भगवान होने की हमारी कामना के पीछे उसकी बेशुमार ताकत का खयाल होता है
दरअसल यह ताकत है जो भगवान को भी बनाती है और इंसान को भी दौड़ाती है।
ताकत हो तभी आप दूसरों को दुख दर्द दे भी सकते हैं और उन्हें दूर भी कर सकते हैं।
इस लिहाज से लगता है कि ताकत सबसे बड़ी चीज़ है।
ताकत हो तो आदमी कुछ भी कर सकता है
सीधे भगवान बन सकता है।
लेकिन ऐसा होता नहीं।
ताकत हासिल कर भगवान बनने निकला आदमी जानवर या हैवान ही बन पाता है।
यानी ताकत इंसान को इंसान भी नहीं रहने देती।
ताकत की ख्वाहिशें जैसे ख़त्म ही नहीं होतीं
वह हर जगह छा जाती है, हर चीज़ पर हावी हो जाती है।
बुद्धि पर, विवेक पर, जीवन की किसी भी दूसरी कसौटी पर।
यानी ठीक से नतीजा निकालें तो हम पाते हैं कि ताकत से आदमी उठता कम गिरता ज़्यादा है।
दरअसल जब वह इस ताकत की व्यर्थता समझ जाता है तो ज़्यादा बेहतर आदमी होता है
और
ज़्यादा बेहतर आदमी होता है तो देवता कहलाने लगता है।
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