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10:34, 2 सितम्बर 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रियदर्शन
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<poem>
अक्सर बहुत ज़ोर से सच बोलने का दावा करने वाले
भूल जाते हैं कि सच क्या है
सच की दिक्कत यह है कि वह आसानी से समझ में नहीं आता
ज़िंदगी सच है या मौत?
अंधेरा सच है या रोशनी?
अगर दोनों सच हैं तो फिर दोनों में फ़र्क क्या है?
सच सच है या झूठ?
झूठ भी तो हो सकता है किसी का सच?
और ज़िंदगी के सबसे बड़े सच
सबसे नायाब झूठों की मदद से ही तो खुलते हैं।
पूरा का पूरा रचनात्मक साहित्य अंततः कुशल ढंग से बोला गया झूठ ही तो है
जो न होता तो ज़िंदगी के सच हमारी समझ में कैसे आते?
कायदे से सच को झूठ का आभारी होना चाहिए
झूठ है इसलिए सच का मोल है।
</poem>
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