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10:51, 2 सितम्बर 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रियदर्शन
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मेरे आसपास कई सफल लोग हैं
अपनी शोहरत के गुमान में डूबे हुए।
जब भी उन्हें कोई पहचान लेता है
वे खुश हो जाते हैं
और अक्सर ऐसे मौकों पर अतिरिक्त विनयशील भी
जैसे जताते हुए कि उन्हें तो मालूम भी नहीं था कि वे इतने सफल और प्रसिद्ध हैं
और बताते हुए कि उन्हें तो मालूम भी नहीं है कैसे आती है सफलता और कैसे मिलती है प्रसिद्धि।
उनके चेहरों पर होती है थोड़ी सी तृप्त और मासूम मुस्कुराहट
और साथ में हाथ झटकते हुए वे कभी-कभी मान भी बैठते हैं
कि जो भी मिला संयोग से मिला, वरना उन जैसे काबिल लोग और भी हैं
कुछ तो उनसे भी काबिल, जो उनके साथ बैठकर कभी अपनी कलम और कभी अपनी कुंठा घिसते हैं।
इस अर्द्धसत्य में झूठ की मिलावट बस इतनी होती है
कि जिसे वे संयोग बताते हैं, उसे संभव करने के लिए उन्होंने जो कुछ किया
उसे वे छुपा ले जाते हैं।
सच है कि उनको देखकर थोड़ी सी हैरानी होती है,
थोड़ा सा अफ़सोस भी और थोड़ी सी कुंठा भी।
कभी-कभी लगता है, किस्मत उन पर ज़्यादा मेहरबान रही
कि उन्हें वह सब मिलता गया, जिसकी कामना दूसरे करते हैं।
कभी-कभी लगता है, जब मांगने, हासिल करने या छीनने का वक्त आया
तो ज़ुबान तालू से चिपक गई, आंख नीची हो गई, हाथों ने हिलने से इऩकार कर दिया।
हकीकत जो भी हो, एक बात समझ में आई
कि सफलता ऐसे ही नहीं मिलती है,
उसके कुछ छोड़ना भी पड़ता है, कुछ छीनना भी।
पहले अपने-आप को सफलता के लिए सुपात्र बनाना पड़ता है
जिसमें उचित जगह पर रिरियाने की, उचित जगह पर हंसने की, उचित जगह पर तारीफ़ करने की, उचित जगह पर निंदा करने की, उचित जगह पर चीखने की भी समझ और आदत विकसित करनी पड़ती है
जिसमें शुरू में तकलीफ होती है, लेकिन बाद में सब ठीक हो जाता है।
सफलता की गर्द धीरे-धीरे दिल के बोझ से ज़्यादा वज़नदार हो जाती है
और आदमी को हलका-हलका लगने लगता है।
फिर एक बार आप सफल हो गए तो आगे सफलता आपको बनाती है
कुंठित लोग पीछे छूट जाते हैं
अपनी असफलताओं के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराते
ख़ुद के न बदलने की मायूसी के मारे
और ऐसी कविताएं लिखते हुए, जिनमें नाकामी के लिए तर्क तलाशे जाते हैं।
लेकिन मेरे पास कोई तर्क नहीं है
इस फर्क के सिवा कि लिखने और बोलने से पहले आसपास देखने और तोलने का अभ्यास कभी बन नहीं पाया।
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