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रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 5

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बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे
 
'चिंता है, मैं क्या और करूं? शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?
 
सब राह बंद मेरे जाने, हाँ एक बात यदि तू माने,
 
तो शान्ति नहीं जल सकती है,
 
समराग्नि अभी तल सकती है
 
'पा तुझे धन्य है दुर्योधन, तू एकमात्र उसका जीवन
 
तेरे बल की है आस उसे, तुझसे जय का विश्वास उसे
 
तू संग न उसका छोडेगा,
 
वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा?
किस कारण मुझे बुलाती है
 
 
पा पाँच तनय फूली फूली, दिन - रात बड़े सुख में भूली
 
कुन्ती गौरव में चूर रही, मुझ पतित पुत्र से दूर रही
 
क्या हुआ की अब अकुलाती है
 
किस कारण मुझे बुलाती है
 
 
क्या पाँच पुत्र हो जाने पर, सुत के धन धाम गंवाने पर
 
या महानाश के छाने पर, अथवा मन के घबराने पर
 
नारियाँ सदय हो जाती हैं
 
बिछुडोँ को गले लगाती है?
 
 
कुन्ती जिस भय से भरी रही, तज मुझे दूर हट खड़ी रही
 
वह पाप अभी भी है मुझमें, वह शाप अभी भी है मुझमें
 
क्या हुआ की वह डर जायेगा
 
कुन्ती को काट न खायेगा
 
 
सहसा क्या हाल विचित्र हुआ, मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
 
कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय, मेरा सुख या पांडव की जय?
 
यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
 
केशव! यह परिवर्तन क्या है?
 
 
मैं हुआ धनुर्धर जब नामी, सब लोग हुए हित के कामी
 
पर ऐसा भी था एक समय, जब यह समाज निष्ठुर निर्दय
 
किंचित न स्नेह दर्शाता था,
 
विष-व्यंग सदा बरसाता था
 
 
उस समय सुअंक लगा कर के, अंचल के तले छिपा कर के
 
चुम्बन से कौन मुझे भर कर, ताड़ना-ताप लेती थी हर
 
राधा को छोड़ भजूं किसको,
 
जननी है वही, तजूं किसको
 
 
हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए, सच है की झूठ मन में गुनिये
 
धूलों में मैं था पडा हुआ, किसका सनेह पा बड़ा हुआ?
 
किसने मुझको सम्मान दिया,
 
नृपता दे महिमावान किया?
 
 
अपना विकास अवरुद्ध देख, सारे समाज को क्रुद्ध देख
 
जब भीतर टूट चुका था मन, आ गया अचानक दुर्योधन
 
निश्छल पवित्र अनुराग लिए,
 
मेरा समस्त सौभाग्य लिए
 
 
कुन्ती ने केवल जन्म दिया, राधा ने माँ का कर्म किया
 
पर कहते जिसे असल जीवन, देने आया वह दुर्योधन
 
वह नहीं भिन्न माता से है
 
बढ़ कर सोदर भ्राता से है
 
 
राजा रंक से बना कर के, यश, मान, मुकुट पहना कर के
 
बांहों में मुझे उठा कर के, सामने जगत के ला करके
 
करतब क्या क्या न किया उसने
 
मुझको नव-जन्म दिया उसने
 
 
है ऋणी कर्ण का रोम-रोम, जानते सत्य यह सूर्य-सोम
 
तन मन धन दुर्योधन का है, यह जीवन दुर्योधन का है
 
सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,
 
केशव ! मैं उसे न छोडूंगा
 
 
सच है मेरी है आस उसे, मुझ पर अटूट विश्वास उसे
 
हाँ सच है मेरे ही बल पर, ठाना है उसने महासमर
 
पर मैं कैसा पापी हूँगा?
 
दुर्योधन को धोखा दूँगा?
 
 
रह साथ सदा खेला खाया, सौभाग्य-सुयश उससे पाया
 
अब जब विपत्ति आने को है, घनघोर प्रलय छाने को है
 
तज उसे भाग यदि जाऊंगा
 
कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा
 
 
मैं भी कुन्ती का एक तनय, जिसको होगा इसका प्रत्यय
 
संसार मुझे धिक्कारेगा, मन में वह यही विचारेगा
 
फिर गया तुरत जब राज्य मिला,
 
यह कर्ण बड़ा पापी निकला
 
 
मैं ही न सहूंगा विषम डंक, अर्जुन पर भी होगा कलंक
 
सब लोग कहेंगे डर कर ही, अर्जुन ने अद्भुत नीति गही
 
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया
 
सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया
 
 
कोई भी कहीं न चूकेगा, सारा जग मुझ पर थूकेगा
 
तप त्याग शील, जप योग दान, मेरे होंगे मिट्टी समान
 
लोभी लालची कहलाऊँगा
 
किसको क्या मुख दिखलाऊँगा?
 
 
जो आज आप कह रहे आर्य, कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
 
सुन वही हुए लज्जित होते, हम क्यों रण को सज्जित होते
 
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,
 
पांडव न कभी जाते वन को
 
 
लेकिन नौका तट छोड़ चली, कुछ पता नहीं किस ओर चली
 
यह बीच नदी की धारा है, सूझता न कूल-किनारा है
 
ले लील भले याग धार मुझे,
 
लौटना नहीं स्वीकार मुझे
 
 
धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ, भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
 
कुल की पोशाक पहन कर के, सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?
 
इस झूठ-मूठ में रस क्या है?
 
केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है?
 
 
 
सिर पर कुलीनता का टीका, भीतर जीवन का रस फीका
 
अपना न नाम जो ले सकते, परिचय न तेज से दे सकते
 
ऐसे भी कुछ नर होते हैं
 
कुल को खाते औ' खोते हैं
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