Changes

रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 5

581 bytes added, 06:19, 22 अगस्त 2008
|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह 'दिनकर'
}}
[[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 4|<< पिछला भाग]]
भगवान सभा को छोड़ चले, करके रण गर्जन घोर चले[[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 4|<< तृतीय सर्ग / भाग 4]] | [[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 6 | तृतीय सर्ग / भाग 6 >>]]
 भगवान सभा को छोड़ चले,  :करके रण गर्जन घोर चले सामने कर्ण सकुचाया सा,  :आ मिला चकित भरमाया सा
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,
रथ चला परस्पर बात चली, शम-दम की टेढी घात चली,
:शम-दम की टेढी घात चली, शीतल हो हरि ने कहा, '"हाय,  :अब शेष नही कोई उपाय
हो विवश हमें धनु धरना है,
'"मैंने कितना कुछ कहा नहीं? विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?
:विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं? पर, दुर्योधन मतवाला है,  :कुछ नहीं समझने वाला है
चाहिए उसे बस रण केवल,
'"हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम, क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?
:क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम? वह भी कौरव को भारी है,  :मति गई मूढ़ की मरी है
दुर्योधन को बोधूं कैसे?
'"सोचो क्या दृश्य विकट होगा, रण में जब काल प्रकट होगा?
:रण में जब काल प्रकट होगा? बाहर शोणित की तप्त धार,  :भीतर विधवाओं की पुकार
निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,
'"चिंता है, मैं क्या और करूं?  :शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ? सब राह बंद मेरे जाने,
सब राह बंद मेरे जाने, :हाँ एक बात यदि तू माने,
तो शान्ति नहीं जल सकती है,
'"पा तुझे धन्य है दुर्योधन, तू एकमात्र उसका जीवन
:तू एकमात्र उसका जीवन तेरे बल की है आस उसे,  :तुझसे जय का विश्वास उसे
तू संग न उसका छोडेगा,
"क्या अघटनीय घटना कराल? तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल,
:तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल, बन सूत अनादर सहता है,  :कौरव के दल में रहता है,
शर-चाप उठाये आठ प्रहार,
'"माँ का स्नेह सनेह पाया न कभी, सामने सत्य आया न कभी,
:सामने सत्य आया न कभी, किस्मत के फेरे में पड़ कर,  :पा प्रेम बसा दुश्मन के घर
निज बंधू मानता है पर को,
'"पर कौन दोष इसमें तेरा? अब कहा माँ इतना मेरा
:अब कहा मान इतना मेरा चल होकर संग अभी मेरे,  :है जहाँ पाँच भ्राता तेरे
बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,
'"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,  :बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम, :तेरा अभिषेक करेंगे हम
आरती समोद उतारेंगे,
'पड़"पद-त्राण भीम पह्नावेगापहनायेगा, धर्माचिप चंवर दुलायेगा
:धर्माचिप चंवर डुलायेगा पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,  :सहदेव-नकुल अनुचर होंगे
भोजन उत्तरा बनायेगी,
"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा ! आनंद-चमत्कृत जग होगा
:आनंद-चमत्कृत जग होगा  सब लोग तुझे पहचानेंगे,  :असली स्वरूप में जानेंगे
खोयी मणि को जब पायेगी,
"रण अनायास रुक जायेगा, कुरुराज स्वयं झुक जायेगा
:कुरुराज स्वयं झुक जायेगा संसार बड़े सुख में होगा,  :कोई न कहीं दुःख में होगा
सब गीत खुशी के गायेंगे,
"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ, साम्राज्य समर्पण करता हूँ
:साम्राज्य समर्पण करता हूँ यश मुकुट मान सिंहासन ले,  :बस एक भीख मुझको दे दे
कौरव को तज रण रोक सखे,
सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,  :क्षण एक तनिक गंभीर हुआ, फिर कहा "बड़ी यह माया है,
फिर कहा बड़ी यह माया है, :जो कुछ आपने बताया है
दिनमणि से सुनकर वही कथा
"मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ, उन्मन यह सोचा करता हूँ,
:उन्मन यह सोचा करता हूँ, कैसी होगी वह माँ कराल,  :निज तन से जो शिशु को निकाल
धाराओं में धर आती है,
"सेवती मास दस तक जिसको, पालती उदर में रख जिसको,
:पालती उदर में रख जिसको, जीवन का अंश खिलाती है,  :अन्तर का रुधिर पिलाती है
आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,
"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये, इस पर न अधिक कुछ भी कहिये
:इस पर न अधिक कुछ भी कहिये सुनना न चाहते तनिक श्रवण,  :जिस माँ ने मेरा किया जनन
वह नहीं नारि कुल्पाली थी,
"पत्थर समान उसका हिय था, सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था
:सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था गोदी में आग लगा कर के,  :मेरा कुल - वंश छिपा कर के
दुश्मन का उसने काम किया,
"माँ का पय भी न पीया मैंने,  :उलटे अभिशाप लिया मैंने वह तो यशस्विनी बनी रही,
वह तो यशस्विनी बनी रही, :सबकी भौ मुझ पर तनी रही
कन्या वह रही अपरिणीता,
"मैं जाती गोत्र से हीन, दीन, राजाओं के सम्मुख मलीनहीन,
जब रोज अनादर पाता था:राजाओं के सम्मुख मलीन, कह 'शूद्र' पुकारा था
जब रोज अनादर पाता था,  :कह 'शूद्र' पुकारा जाता था पत्थर की छाती पती फटी नही,
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं
"मैं सूत-वंश में पलता था, अपमान अनल में जलता था,
:अपमान अनल में जलता था, सब देख रही थी दृश्य पृथा,  :माँ की ममता पर हुई वृथा
छिप कर भी तो सुधि ले न सकी
"पा पाँच तनय फूली फूली, दिन - रात बड़े सुख में भूली
कुन्ती गौरव :दिन-रात बड़े सुख में चूर रही, मुझ पतित पुत्र से दूर रहीभूली
क्या हुआ की अब अकुलाती हैकुन्ती गौरव में चूर रही,
किस कारण मुझे बुलाती है:मुझ पतित पुत्र से दूर रही
क्या हुआ की अब अकुलाती है?
क्या पाँच पुत्र हो जाने पर, सुत के धन धाम गंवाने परकिस कारण मुझे बुलाती है?
 "क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,  :सुत के धन धाम गंवाने पर या महानाश के छाने पर,  :अथवा मन के घबराने पर
नारियाँ सदय हो जाती हैं
"कुन्ती जिस भय से भरी रही,  :तज मुझे दूर हट खड़ी रही  वह पाप अभी भी है मुझमें,  :वह शाप अभी भी है मुझमें क्या हुआ की वह डर जायेगा?
वह पाप अभी भी है मुझमें, वह शाप अभी भी है मुझमेंकुन्ती को काट न खायेगा?
क्या हुआ की वह डर जायेगा
कुन्ती को काट न खायेगा"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,
:मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
सहसा कुन्ती का क्या हाल विचित्र हुआचाहता ह्रदय, मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय, :मेरा सुख या पांडव की जय?
यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी, सब लोग हुए हित के कामी
:सब लोग हुए हित के कामी पर ऐसा भी था एक समय,  :जब यह समाज निष्ठुर निर्दय
किंचित न स्नेह दर्शाता था,
"उस समय सुअंक लगा कर के, अंचल के तले छिपा कर के
:अंचल के तले छिपा कर के  चुम्बन से कौन मुझे भर कर,  :ताड़ना-ताप लेती थी हर?
राधा को छोड़ भजूं किसको,
जननी है वही, तजूं किसको?
"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए, सच है की झूठ मन में गुनिये
:सच है की झूठ मन में गुनिये धूलों में मैं था पडा हुआ,  :किसका सनेह पा बड़ा हुआ?
किसने मुझको सम्मान दिया,
"अपना विकास अवरुद्ध देख, सारे समाज को क्रुद्ध देख
जब :सारे समाज को क्रुद्ध देख भीतर जब टूट चुका था मन,  :आ गया अचानक दुर्योधन
निश्छल पवित्र अनुराग लिए,
"कुन्ती ने केवल जन्म दिया, राधा ने माँ का कर्म किया
:राधा ने माँ का कर्म किया पर कहते जिसे असल जीवन,  :देने आया वह दुर्योधन
वह नहीं भिन्न माता से है
"राजा रंक से बना कर के,  :यश, मान, मुकुट पहना कर के बांहों में मुझे उठा कर के,
बांहों में मुझे उठा कर के, :सामने जगत के ला करके
करतब क्या क्या न किया उसने
"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम, जानते सत्य यह सूर्य-सोम
:जानते सत्य यह सूर्य-सोम तन मन धन दुर्योधन का है,  :यह जीवन दुर्योधन का है
सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,
"सच है मेरी है आस उसे, मुझ पर अटूट विश्वास उसे
:मुझ पर अटूट विश्वास उसे हाँ सच है मेरे ही बल पर,  :ठाना है उसने महासमर
पर मैं कैसा पापी हूँगा?
"रह साथ सदा खेला खाया, सौभाग्य-सुयश उससे पाया
:सौभाग्य-सुयश उससे पाया अब जब विपत्ति आने को है,  :घनघोर प्रलय छाने को है
तज उसे भाग यदि जाऊंगा
मैं भी "कुन्ती का मैं भी एक तनय, जिसको होगा इसका प्रत्यय
:जिसको होगा इसका प्रत्यय संसार मुझे धिक्कारेगा,  :मन में वह यही विचारेगा
फिर गया तुरत जब राज्य मिला,
"मैं ही न सहूंगा विषम डंक,  :अर्जुन पर भी होगा कलंक सब लोग कहेंगे डर कर ही,
सब लोग कहेंगे डर कर ही, :अर्जुन ने अद्भुत नीति गही
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया
"कोई भी कहीं न चूकेगा, सारा जग मुझ पर थूकेगा
:सारा जग मुझ पर थूकेगा तप त्याग शील, जप योग दान,  :मेरे होंगे मिट्टी समान
लोभी लालची कहाऊँगा
"जो आज आप कह रहे आर्य, कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
:कुन्ती के मुख से कृपाचार्य सुन वही हुए लज्जित होते,  :हम क्यों रण को सज्जित होते
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,
"लेकिन नौका तट छोड़ चली, कुछ पता नहीं किस ओर चली
:कुछ पता नहीं किस ओर चली यह बीच नदी की धारा है,  :सूझता न कूल-किनारा है
ले लील भले यह धार मुझे,
"धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ, भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
:भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ? कुल की पोशाक पहन कर के,  :सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?
इस झूठ-मूठ में रस क्या है?
"सिर पर कुलीनता का टीका, भीतर जीवन का रस फीका
:भीतर जीवन का रस फीका अपना न नाम जो ले सकते,  :परिचय न तेज से दे सकते
ऐसे भी कुछ नर होते हैं
कुल को खाते औ' खोते हैं
 [[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 4|<< तृतीय सर्ग / भाग 4]] | [[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 6 | अगला तृतीय सर्ग / भाग 6 >>]]