1,533 bytes added,
14:45, 30 सितम्बर 2014 {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= |अनुवादक= |संग्रह=परिदृश्य के भीतर / कुमार मुकुल }} {{KKCatKavita}} <poem>
इकलौता तारा जलता पश्चिमी क्षितिज पर
डूब अभी जाएगा क्षण में, मानस पट पर।
उग आएगा तब वह और प्रज्वलित होकर
दिप - दिप करता हुआ जलेगा, इत - उत फिरता
हुआ अंत में वो थिर होगा उर में मेरी
आंखें बन कर । अंतस को मेरे भर देगा
मधुर ज्वाल से और काल से , टक्कर लेगा
डटकर, रह जाएंगी उसकी आंखें फटकर ।
काल ढाल है चुके हुओं का झुके हुओं का
जो जीवन रण छोड चुके मोड चुके हैं मुख
सकाल से । पर जिनकी सुबहें नहीं भरोसे
किसी सूर्य के, कहीं किसी इकतारे की
धुंधली धुन पर, चलते - रहते हल्की सी
भीगी उजास में आस छिपाए विलम-विलम कर।
1999
</poem>