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माँ / रश्मि रेखा

698 bytes added, 17:06, 30 सितम्बर 2014
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|रचनाकार=रश्मि रेखा
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|संग्रह=सीढ़ियों का दुख / रश्मि रेखा
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जब दुनिया में आंखें खोली सुनी प्यार की मीठी बोलीअंत:सलिला हो तुम मेरी माँ पकड़ के उंगली चलना सीखा ऊपर-ऊपर रेतभीतर-भीतर शीतल जल रेत भी कैसी स्वर्ण मिली जिन्हें अलग करना संभव नहीं स्नेह की तेरे सीमाहां वो तुम ही तो थी ओ मां!अक्सर जब चाहा है उसे कुरेदने पर पाया हैं वह सब कुछ जिसकी ज़रूरत होती हैअपनी जड़ों से कट कर जीने को विवश तुम्हारी बेटी को
जीवन के हर नए मोड़ पर रिश्तो के संग मुझे जोड़करजब तुमने मेरा साथ दिया था आंचल पिता से मुझे ढांक लिया सीखा थासपनों में रंग भरना पर जाना तुमसे कैसे चलना है खुरदुरी जमींन पर हां वो तुम ही तो थी ओे मां!संतुलित करती रहीं लगातार दुनिया के अपने तीखे अनुभवों और तपती रेत के इतिहास द्वारा
जब जब मैं जीवन से हारी सोचा छोडूं दुनिया सारीबहुत कुछ पाकरतुमने मेरा सिर सहलाकर जीवन अमृत मुझे दिया थाबहुत कुछ खोकार हां वो तुम ही तो थी ओे मां!आधी-अधूरी बनी रह कर भी माँ इंगित करती रही दिशाओं की ओर सिखाती रही जूझना
दूर रहूं या पास हूँ तेरे; तेरी आशीषों के घेरेसमय ने वैसा नहीं बनने दिया सदा राह जैसा चाहती थी तुम हमें गढ़ना पर अनंत जिजीविषा से भरी मेरी महकाते मानो चंदन के उपवन सामाँ हां वो तुम ही तुम्हारी आँखें तो थी ओे मां!भविष्य पर रहती हैं शायद इसीलिये तुम्हारी सोच में अब हम नहीं हमारे आकार लेते बच्चे हैं
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