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पिता / अवनीश सिंह चौहान

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<Poem>
पिता हमाए
मैं रोया तो मुझे चुपाया'बिल्ली आई'‘बिल्ली आई’कह बहलाया
मुश्किल में
जीवन जीने की-
कला सिखाए
पिता हमाए
नदिया में मुझको मुझको नहलायाझूले में मुझको मुझको झुलवाया
मेरी जिद पर गोद उठाकर मुझे मनाए
पिता हमाए
जब भी फसली
चीजें लाते
सब से सबसे पहले
मुझे खिलाते
कभी-कभी खुद भूखे रह कररहकरमुझे खिलाए
पिता हमाए
शब्द सुना पापा का जब से जबसे
मैं भी पिता
बन गया तब से
मधुर-मधुर-सी
संस्मृयों संस्मृतियों में अब तक छाए पिता हमाए
</poem>
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