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|रचनाकार=महेन्द्र भटनागर
|संग्रह= मधुरिमा / महेन्द्र भटनागर
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<poem>शिशिर-ऋतु-राज, राका-रश्मियाँ चंचल !<br><BR>
कि फैला दिग-दिगन्तों में सघन कुहरा,<br>सजल कण-कण कि मानों प्यार आ उतरा,<br>प्रकृति-संगीत-स्वर बस गूँजता अविरल !<br><BR>
शिथिल तरु-डाल, सम्पुट फूल-पाँखुड़ियाँ,<br>रहीं चुपचाप गिर ये ओस की लड़ियाँ,<br>धवल हैं सब दिशाएँ झूमती उज्वल !<br><BR>
गगन के वक्ष पर कुछ टिमटिमाते हैं,<br>सितारे जो नहीं फूले समाते हैं,<br>सुखद प्रत्येक उर है नृत्यमय-झलमल !<br><BR>
धरा आकाश एकाकार आलिंगन,<br>प्रणय के तार पर यौवन भरा गायन,<br>फिसलता नीलवर्णी शून्य में आँचल !<br><BR>
विहग तरु पर अकेला कूक देता है,<br>किसी की याद में बस हूक देता है,<br>नयन प्रिय-पंथ पर प्रतिपल बिछे निर्मल !<br><BR>
सबेरा है कहाँ ? संसार सब सोया,<br>पवन सुनसान में बहता हुआ खोया,<br>अभी हैं स्वप्न के पल शेष कुछ कोमल !<br/poem>
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