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आवारा सजदे / कैफ़ी आज़मी

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|रचनाकार=कैफ़ी आज़मी
}}
{{KKCatNazm}}<poem>इक यही सोज़-ए-निहाँ कुल मेरा सरमाया है <br>दोस्तो मैं किसे ये सोज़-ए-निहाँ नज़र करूँ<br>कोई क़ातिल सर-ए-मक़्तल नज़र आता ही नहीं<br>किस को दिल नज़र करूँ और किसे जाँ नज़र करूँ?<br><br>
तुम भी महबूब मेरे तुम भी हो दिलदार मेरे<br>आशना मुझ से मगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं<br>ख़त्म है तुम पे मसीहानफ़सी चारागरी<br>मेहरम-ए-दर्द-ए-जिगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं<br><br>
अपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं<br>दस्त-ओ-बाज़ू मेरे नाकारा हुए जाते हैं<br>जिन से हर दौर में चमकी है तुम्हारी दहलीज़<br>आज सजदे वही आवारा हुए जाते हैँ<br><br>
दूर मंज़िल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी<br>लेके फिरती रही रास्ते ही में वहशत मुझ को<br>एक ज़ख़्म ऐसा न खाया के बहार आ जाती<br>दार तक लेके गया शौक़-ए-शहादत मुझ को<br><br>
राह में टूट गये पाँव तो मालूम हुआ<br>जुज़ मेरे और मेरा रहनुमा कोई नहीं<br>एक के बाद ख़ुदा एक चला आता था<br>कह दिया अक़्ल ने तंग आके 'ख़ुदा कोई नहीं'<br><br/poem>
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