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फरक! / राजू सारसर ‘राज’

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|संग्रह=म्हारै पांती रा सुपना / राजू सारसर ‘राज’
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<poem>
भायला
थूं अर म्हूं
आपां दोन्यूं
हां, अैक’ज डाल रा पांखी
अैक जात-अैक न्यात
होंवता थकां ई
बजां न्यारा न्यारा।
थारै सामी है
आभै रो अणपार लीलास
चारूं दिसावां खुलो
उडणैं खातर।
बैवंती संस्किरती री
सतरंगी धारावां
‘हाई सोसायटी’
विगत ज्ञान
जिनगाणीं रो नवाें
दरसण।
थारै साथै जलमैं
बै चीजां
जिकी म्हारै सुपनां
में ई नीं आवै
म्हारै सुंई छाती है।
</poem>
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