प्रथम सर्ग
अयि दयामयि देवि, सुखदे, सारदे,
इधर भी निज वरद-पाणि पसारदे।
दास की यह देह-तंत्री सार दे,
रोम - तारों में नई झंकार दे।
बैठ, आ, मानस-मराल सनाथ हो,
भार - वाही कंठ - केकी साथ हो।
चल अयोध्या के लिए, सज साज तू,
मां, मुझे कृतकृत्य कर दे आज तू।
स्वर्ग से भी आज भूतल बढ़ गया,
भाग्यभास्कर उदयगिरि पर चढ़ गया।
हो गया निर्गुण सगुण-साकार है,
ले लिया अखिलेश ने अवतार है।
किस लिए यह खेल प्रभु ने है किया?
मनुज बनकर मानवी का पय पिया?
भक्त-वत्सलता इसी का नाम है।
और यह वह लोकेश लीला-धाम है।
पथ दिखाने के लिए संसार को,
दूर करने के लिए भू-भार को,
सफल करने के लिए जन-दृष्टियां,
क्यों न करता वह स्वयं निज सृष्टियां?
असुर-शासन शिशिर-मय हेमंत है,
पर निकट ही राम-राज्य-वसंत है।
पापियों का जान लो अब अंत है,
भूमि पर प्रकटा अनादि-अनंत है।
राम-सीता, धन्य धीरांबर-इला,
शौर्य-सह संपत्ति, लक्ष्मण-ऊर्मिला।
भरत कर्त्ता, मांडवी उनकी क्रिया;
कीर्ति-सी श्रुतकीर्ति शत्रुघ्नप्रिया।
ब्रह्म की हैं चार जैसी पूर्त्तियां,
ठीक वैसी चार माया-मूर्त्तियां,
धन्य दशरथ-जनक-पुण्योत्कर्ष है;
धन्य भगवद्भूमि-भारतवर्ष है!
देख लो, साकेत नगरी है यही,
स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही।
केतु-पट अंचल-सदृश हैं उड़ रहे,
कनक-कलशों पर अमर-दृग जुड़ रहे!
सोहती है विविध-शालाएं बड़ी,
छत उठाए भित्तियां चित्रित खड़ी।
गेहियों के चारु-चरितों की लड़ी,
छोड़ती है छाप, जो उन पर पड़ी!
स्वच्छ, सुंदर और विस्तृत घर बनें,
इंद्रधनुषाकार तोरण हैं तनें।
देव-दंपति अट्ट देख सराहते,
उतर कर विश्राम करना चाहतेष
फूल-फल कर, फैल कर जी हैं बढ़ी,
दीर्घ छज्जों पर विविध बेलें चढ़ीं।
पौरकन्याएं प्रसून-स्तूप कर,
वृष्टि करती हैं यहीं से भूप पर।
फूल-पत्ते हैं गवाक्षों में कढ़े,
प्रकृति से ही वे गए मानो गढ़े।
दामनी भीतर दमकती है कभी,
चंद्र की माला चमकती है कभी।
सर्वदा स्वच्छंद छज्जों के तले,
प्रेम के आदर्श पारावत पले।
केश-रचना के सहाक हैं शिखी,
चित्र में मानो अयोध्या है लिखी!
दृष्टि में वैभव भरा रहता सदा;
घ्राण में आमोद है बहता सदा।
ढालते हैं शब्द श्रुतियों में सुधा,
स्वाद गिन पाती नहीं रसना-क्षुधा!
कामरूपी वारिदों के चित्र-से,
इंद्र की अमरावती के मित्र-से,
कर रहे नृप-सौध गगम-स्पर्श हैं,
शिल्प-कौशल के परम आदर्श हैं।
कोट-कलशों पर प्रणीत विहंग हैं,
ठीक जैसे रूप, वैसे रंग हैं।
वायु की गति गान देती है उन्हें,
बांसुरी की तान देती है उन्हें।
ठौर ठौर अनेक अध्वर-यूप हैं,
जो सुसंवत के निदर्शन-रूप हैं।
राघवों की इंद्र-मैत्री के बड़े,
वेदियों के साथ साक्षी-से खड़े।
मूर्तिमय, विवरण समेत, जुदे जुदे,
ऐतिहासिक वृत्त जिनमें हैं खुदे,
यत्र तत्र विशाल कीर्ति-स्तंभ हैं,
दूर करते दानवों का दंभ हैं।
स्वर्ग की तुलना उचित ही है यहां,
किंतु सुरसरिता कहां, सरयू कहां?
वह मरों को मात्र पार उतारती,
यह यहीं से जीवितों को तारती!
अंगराग पुरांगनाओं के धुले,
रंग देकर नीर में जो हैं धुले,
दीखते उनसे विचित्र तरंग हैं,
कोटि शक्र-शरास होते भंग हैं।
है बनी साकेत नगरी नागरी,
और सात्विक-भाव से सरयू भरी।
पुण्य की प्रत्यक्ष धारा वह रही।
तीर पर हैं देव-मंदिर सोहते,
भावुकों के भाव मन को मोहते।
आस-पास लगी वहां फुलवारियां,
हंस रही हैं खिलखिला कर क्यारियां।
है अयोध्या अवनि की अमरावती,
इंद्र हैं दशरथ विदित वीरव्रती,
वैजयंत विशाल उनके धाम हैं,
और नंदन वन बने आराम हैं।
एक तरु के विविध सुमनों-से खिले,
पौरजन रहते परस्पर हैं मिले।
स्वस्थ, शिक्षित, शिष्ट उद्योगी सभी,
बाह्यभोगी, आंतरिक योगी सभी।
व्याधि की बाधा नहीं तन के लिए,
आधि की शंका नहीं मन के लिए।
चोर की चिंता नहीं धन के लिए,
सर्व सुख हैं प्राप्त जीवन के लिए।
एक भी आंगन नहीं ऐसा यहां,
शिशु न करते हों कलित-क्रीड़ा जहां।
कौन है ऐसा अभाग गृह कहो,
साथ जिसके अश्व-गोशाला न हो?
धान्य-धन-परिपूर्ण सबके धाम हैं,
रंगशाला-से सजे अभिराम हैं।
नागरों की पात्रता, नव नव कला,
क्यों न दे आनंद लोकोत्तर भला?
ठाठ है सर्वत्र घर या घाट है,
लोक-लक्ष्मी की विलक्षण हाट है।
सिक्त, शिश्चित-पूर्ण मार्ग अकाट्य है,
घर सुघर नेपथ्य, बाहर नाट्य है!
अलग रहती हैं सदा ही ईतियां,
भटकती हैं शून्य में ही भीतियां।
नीतियों के साथ रहती रीतियां,
पूर्ण हैं राजा-प्रजा की प्रीतियां।
पुत्र रूपी चार फल पाए यहं,
भूप को अब और कुछ पाना नहीं।
बस यही संकल्प पूरा एक हो,
शीघ्र ही श्रीराम का अभिषेक हो।
सूर्य का यद्यपि नहीं आना हुआ;
किंतु समझो, रात का जाना हुआ।
क्योंकि उसके अंग पीले पड़ चले;
रम्य-रत्नाभरण ढीले पढ़ चले।
एक राज्य न हो, बहुत से हों जहां,
राष्ट्र का बल बिखर जाता है वहां।
बहुत तारे थे, अंधेरा कब मिटा।
सूर्य का आना सुना जब, तब मिटा।
नींद के भी पैर हैं कंपने लगे,
देखलो, लोचन-कुमुद झंपने लगे।
वेष-भूषा साज ऊषा आ गई,
मुख-कमल पर मुस्कराहट छ गई।
पक्षियों की चहचहाहट हो उठी,
स्वप्न के जो रंग थे वे घुल उठे,
प्राणियों के नेत्र कुछ कुछ खुल उठे।
दीप-कुल की ज्योति निष्प्रभ हो निरी,
रह गई अब एक घेरे में घिरी।
किंतु दिनकर आ रहा, क्या सोच है?
उचित ही गुरुजन-निकट संकोच है।