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"तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत?
वेदना का यह कैसा वेग?
आह!तुम कितने अधिक हताश-,
बताओ यह कैसा उद्वेग?
हृदय में क्या है नहीं अधीर-,
लालसा की निश्शेष?
कर रहा वंचित कहीं न त्याग तुम्हें,तुम्हें,मन में घर धर सुंदर वेशवेश।
दुख के डर से तुम अज्ञात,जटिलताओं का कर अनुमान,अनुमान। काम से झिझक रहे हो आज़,भविष्य से बनकर अनजान,अनजान।
कर रही लीलामय आनंद-,महाचिति सजग हुई-सी व्यक्त,व्यक्त। विश्व का उन्मीलन अभिराम-,
इसी में सब होते अनुरक्त।
काम-मंगल से मंडित श्रेय,
सर्ग इच्छा का है परिणाम,परिणाम। तिरस्कृत कर उसको तुम भूल,
बनाते हो असफल भवधाम"
"दुःख की पिछली रजनी बीच,विकसता सुख का नवल प्रभात,प्रभात। एक परदा यह झीना नील,
छिपाये है जिसमें सुख गात।
जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूल-मूल।
ईश का वह रहस्य वरदान,
कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीडा से व्यक्त , हो रहास्पंदित विश्व महान,महान। यही दुख-सुख विकास का सत्य,
यही भूमा का मधुमय दान।
नित्य समरसता का अधिकार,उमडता कारण-जलधि समान,समान।
व्यथा से नीली लहरों बीच
बिखरते सुख-मणिगण-द्युतिमान।"
लगे कहने मनु सहित विषाद-
"मधुर मारूत-से ये उच्छ्वासउच्छ्वास। अधिक उत्साह तरंग अबाध,
उठाते मानस में सविलास।
किंतु जीवन कितना निरूपाय!
लिया है देख, नहीं संदेह,संदेह।
निराशा है जिसका कारण,
सफलता का वह कल्पित गेह।"
कहा आगंतुक ने सस्नेह- "अरे,तुम इतने हुए अधीरअधीर।
हार बैठे जीवन का दाँव,
जीतते मर कर जिसको वीर।
तप नहीं केवल जीवन-सत्य,करूण करुण यह क्षणिक दीन अवसाद,अवसाद। तरल आकांक्षा से है भरा-,
सो रहा आशा का आल्हाद।
प्रकृति के यौवन का श्रृंगार,करेंगे कभी न बासी फूल,फूल। मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र,
आह उत्सुक है उनकी धूल।
पुरातनता का यह निर्मोक,सहन करती न प्रकृति पल एक,एक। नित्य नूतनता का आंनद,
किये है परिवर्तन में टेक।
युगों की चट्टानों पर सृष्टि,डाल पद-चिह्न चली गंभीर,गंभीर। देव,गंधर्व,असुर की पंक्ति,
अनुसरण करती उसे अधीर।"
"एक तुम, यह विस्तृत भू-खंड,प्रकृति वैभव से भरा अमंद,अमंद।
कर्म का भोग, भोग का कर्म,
यही जड़ का चेतन-आनन्द।
अकेले तुम कैसे असहाय,
यजन कर सकते? तुच्छ विचार।
तपस्वी! आकर्षण से हीन,
कर सके नहीं आत्म-विस्तार।
दब रहे हो अपने ही बोझ,खोजते भी नहीं कहीं अवलंब,अवलंब। तुम्हारा सहचर बन कर क्या न,
उऋण होऊँ मैं बिना विलंब?
समर्पण लो-सेवा का सार,
सजल संसृति का यह पतवार,पतवार। आज से यह जीवन उत्सर्ग,इसी पद-तल में विगत-विकारविकार।
दया, माया, ममता लो आज,
मधुरिमा लो, अगाध विश्वास,विश्वास। हमारा हृदय-रत्न-निधिस्वच्छ , तुम्हारे लिए खुला है पास।
बनो संसृति के मूल रहस्य,
तुम्हीं से फैलेगी वह बेल,बेल।
विश्व-भर सौरभ से भर जाय
सुमन के खेलो सुंदर खेल।"
"और यह क्या तुम सुनते नहीं,विधाता का मंगल वरदान-वरदान।
'शक्तिशाली हो, विजयी बनो'
विश्व में गूँज रहा जय-गान।
डरो मत, अरे अमृत संतान,अग्रसर है मंगलमय वृद्धि,वृद्धि। पूर्ण आकर्षण जीवन केंद्र,
खिंची आवेगी सकल समृद्धि।
देव-असफलताओं का ध्वंस
प्रचुर उपकरण जुटाकर आज,आज।
पड़ा है बन मानव-सम्पत्ति
पूर्ण हो मन का चेतन-राज।
चेतना का सुंदर इतिहास-,अखिल मानव भावों का सत्य,सत्य। विश्व के हृदय-पटल परदिव्य , अक्षरों से अंकित हो नित्य।
विधाता की कल्याणी सृष्टि,
सफल हो इस भूतल पर पूर्ण,पूर्ण। पटें सागर, बिखरे ग्रह-पुंज,
और ज्वालामुखियाँ हों चूर्ण।
उन्हें चिंगारी सदृश सदर्प,कुचलती रहे खडी खड़ी सानंद,आज से मानवता की कीर्ति,
अनिल, भू, जल में रहे न बंद।
विश्व की दुर्बलता बल बने,
पराजय का बढ़ता व्यापार-व्यापार। हँसाता रहे उसे सविलास,शक्ति का क्रीडामय क्रीड़ामय संचार।
शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त,विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय,निरूपाय।
समन्वय उसका करे समस्त
विजयिनी मानवता हो जाय"।
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