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|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद
}}
"जीवन के वे निष्ठुर दंशन
जिनकी आतुर पीड़ा,पीड़ा।
कलुष-चक्र सी नाच रही है
स्खलन चेतना के कौशल का
भूल जिसे कहते हैं,हैं।
एक बिंदु जिसमें विषाद के
आह वही अपराध,
जगत की दुर्बलता की माया,माया।
धरणी की वर्ज़ित मादकता,
संचित तम की छाया।
नील-गरल से भरा हुआ
यह चंद्र-कपाल लिये हो,हो।
इन्हीं निमीलित ताराओं में
अखिल विश्च का विष पीते हो
सृष्टि जियेगी फिर से,से।
कहो अमरता शीतलता इतनी
अचल अनंत नील लहरों पर
बैठे आसन मारे,मारे।
देव! कौन तुम, झरते तन से
झरते तन से श्रमकण से ये तारेतारे।
इन चरणों में कर्म-कुसुम की
अंजलि वे दे सकते,सकते।
चले आ रहे छायापथ में
लोक-पथिक जो थकते,थकते।
किंतु कहाँ वह दुर्लभ उनको
स्वीकृति मिली तुम्हारीतुम्हारी।
लौटाये जाते वे असफल
प्रखर विनाशशील नर्त्तन नर्तन में
विपुल विश्व की माया,माया।
क्षण-क्षण होती प्रकट, नवीना
नवीना बनकर उसकी काया।
दुर्व्यवहार एक का
कैसे अन्य भूल जावेगा,जावेगा।
कौ उपाय गरल को कैसे
जाग उठी थी तरल वासना
मिली रही मादकता,मादकता।
मनु को कौन वहाँ आने से
भला रोक अब सकता।
खुले मृषण भुज़-मूलों से
वह आमंत्रण थ मिलता,था मिलता।
उन्नत वक्षों में आलिंगन-सुख
नीचा हो उठता जो
धीमे-धीमे निस्वासों में,में।
जीवन का ज्यों ज्वार उठ रहा
जागृत था सौंदर्य यद्यपि
वह सोती थी सुकुमारीसुकुमारी।
रूप-चंद्रिका में उज्ज़वल थी
वे मांसल परमाणु किरण से
विद्युत थे बिखराते,बिखराते।
अलकों की डोरी में जीवन
विगत विचारों के श्रम-सीकर
बने हुए थे मोती,मोती।
मुख मंडल पर करुण कल्पना
छूते थे मनु और कटंकित
होती थी वह बेली,बेली।
स्वस्थ-व्यथा की लहरों-सी
वह पागल सुख इस जगती का
आज़ विराट बना था,था।
अंधकार- मिश्रित प्रकाश का
एक वितान तना था।
कामायनी जगी थी कुछ-कुछ
खोकर सब चेतनता,चेतनता।
मनोभाव आकार स्वयं हो
जिसके हृदय सदा समीप है
वही दूर जाता है,है।
और क्रोध होता उस पर ही
प्रिय कि को ठुकरा कर भी
मन की माया उलझा लेती,लेती।
प्रणय-शिला प्रत्यावर्त्तन में
जलदागम-मारुत से कंपित
पल्लव सदृश हथेली,हथेली।
श्रद्धा की, धीरे से मनु ने
अनुनय वाणी में,
आँखों में उपालंभ की छाया,छाया।
कहने लगे- "अरे यह कैसी
मानवती की माया।
स्वर्ग बनाया है जो मैंने
उसे न विफल बनाओ,बनाओ।
अरी अप्सरे! उस अतीत के
इस निर्ज़न में ज्योत्स्ना-पुलकित
विद्युत नभ के नीचे,नीचे।
केवल हम तुम, और कौन?
आकर्षण से भरा विश्व यह
केवल भोग्य हमारा,हमारा।
जीवन के दोनों कूलों में
श्रम की, इस अभाव की जगती
उसकी सब आकुलता,आकुलता।
जिस क्षण भूल सकें हम
वही स्वर्ग की बन अनंतता
मुसक्याता मुसकाता रहता है,है।
दो बूँदों में जीवन का
देवों को अर्पित मधु-मिश्रित
सोम, अधर से छू लो,लो।
मादकता दोला पर प्रेयसी!
श्रद्धा जाग रही थी
तब भी छाई थी मादकता,मादकता।
मधुर-भाव उसके तन-मन में
बोली एक सहज़ मुद्रा से
"यह तुम क्या कहते हो,हो।
आज़ अभी तो किसी भाव की
कल ही यदि परिवर्त्तन परिवर्तन होगा
तो फिर कौन बचेगा।
क्या जाने कोइ कोई साथी
बन नूतन यज्ञ रचेगा।
और किसी की फिर बलि होगी
किसी देव के नाते,नाते।
कितना धोखा ! उससे तो हम
अपना ही सुख पाते।
ये प्राणी जो बचे हुए हैं
इस अचला जगती के,के।
उनके कुछ अधिकार नहीं
मनु ! क्या यही तुम्हारी होगी
उज्ज्वल मानवता।--------------------------------------
जिसमें सब कुछ ले लेना हो
"तुच्छ नहीं है अपना सुख भी
श्रद्धे ! वह भी कुछ है,है।
दो दिन के इस जीवन का तो
इंद्रिय की अभिलाषा
जितनी सतत सफलता पावे,पावे।
जहाँ हृदय की तृप्ति-विलासिनी
रोम-हर्ष हो उस ज्योत्स्ना में
मृदु मुसक्यान मुसकान खिले तो,तो।
आशाओं पर श्वास निछावर
विश्व-माधुरी जिसके सम्मुख
मुकुर बनी रहती होहो।
वह अपना सुख-स्वर्ग नहीं है
जिसे खोज़ता फिरता मैं
इस हिमगिरि के अंचल में,में।
वही अभाव स्वर्ग बन
वर्तमान जीवन के सुख से
योग जहाँ होता है,है।
छली-अदृष्ट अभाव बना
किंतु सकल कृतियों की
अपनी सीमा है हैं हम ही तो,तो।
पूरी हो कामना हमारी
एक अचेतनता लाती सी
सविनय श्रद्धा बोली,बोली।
"बचा जान यह भाव सृष्टि ने
फिर से आँखे खोली।आँखेँ खोलीं।
भेद-बुद्धि निर्मम ममता की
समझ, बची ही होगी,होगी।
प्रलय-पयोनिधि की लहरें भी
अपने में सब कुछ भर
कैसे व्यक्ति विकास करेगा,करेगा।
यह एकांत स्वार्थ भीषण है
औरों को हँसता देखो
मनु-हँसो और सुख पाओ,पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो
रचना-मूलक सृष्टि-यज्ञ
यह यज्ञ पुरूष का जो है,है।
संसृति-सेवा भाग हमारा
सुख को सीमित कर
अपने में केवल दुख छोड़ोगे,छोड़ोगे।
इतर प्राणियों की पीड़ा
लख अपना मुहँ मोड़ोगेमुँह मोड़ोगे।
ये मुद्रित कलियाँ दल में
सब सौरभ बंदी कर लें,लें।
सरस न हों मकरंद बिंदु से
सूखे, झड़े और तब कुचले
सौरभ को पाओगे,पाओगे।
फिर आमोद कहाँ से मधुमय
सुख अपने संतोष के लिये
संग्रह मूल नहीं है,है।
उसमें एक प्रदर्शन
सुख समीर पाकर,
चाहे हो वह एकांत तुम्हारातुम्हारा।
बढ़ती है सीमा संसृति की
हृदय हो रहा था उत्तेज़ित
बातें कहते-कहते,कहते।
श्रद्धा के थे अधर सूखते
उधर सोम का पात्र लिये मनु,
समय देखकर बोले-
वही करूँगा जो कहती हो सत्य,
अकेला सुख क्या?"
यह मनुहार रूकेगारुकेगा
प्याला पीने से फिर मुख क्या?
आँखे आँखें प्रिय आँखों में,
डूबे अरुण अधर थे रस में।
छल-वाणी की वह प्रवंचना
हृदयों की शिशुता को,को।
खेल दिखाती, भुलवाती जो
उस निर्मल विभुता को,को।
जीनव का उद्देश्य लक्ष्य की
प्रगति दिशा को पल मेंमें।
अपने एक मधुर इंगित से
वही शक्ति अवलंब मनोहर
निज़ मनु को थी देतीदेती।
जो अपने अभिनय से
मन को सुख में उलझा लेती।
 
"श्रद्धे, होगी चन्द्रशालिनी
यह भव रज़नी भीमा,भीमा।
तुम बन जाओ इस ज़ीवन के
लज्जा का आवरण प्राण को
ढ़क ढक लेता है तम से
उसे अकिंचन कर देता है
कुचल उठा आनन्द,
यही है, बाधा, दूर हटाओ,हटाओ।
अपने ही अनुकूल सुखों को
और एक फिर व्याकुल चुम्बन
रक्त खौलता जिसमें,जिससे।
शीतल प्राण धधक उठता है
दो काठों की संधि बीच
उस निभृत गुफा में अपने,अपने।
अग्नि शिखा बुझ गयी,
जागने पर जैसे सुख सपने।