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अेक तारो टूटग्यौ / वासु आचार्य

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<poem>
मौकळा दिन-निसरग्या चीखता
बिलखतै दिनां सागै
मौकळी रातां पीयगी
रातां रो अंधारो-
नीं तो फूटै कलम सूं
कोई ज्वालामुखी
अर नीं‘ई मण्डै है-ठंडी मधरी
चांदणी रा चितराम-कौरै कागद

अेक तारो क्या टूटग्यौ-आभै सूं-
सूरज नै‘ई करग्यौ लीर-लीर

कीरै चढ़ाऊ अरघ
या ताक‘र मारू भाटो
चीस्याड़ा मारती पून
चीरणौ चावै काळजो
रूं रूं छावतै सरणाटै मांय
गूंजतौ रैवै भंभाड़ मारतो कुवो

पथरायी म्हारी आंख्यां
ताकती रै
रंजी भर्यौड़ी कलम
कुण झलावै झाड़
पाछी म्हारै हाथां
हाथां सूं ?
</poem>
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