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सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गयी गई थी<br>और एक चिड़िया अभी-अभी गा गयी थी ।गई थी।<br><br>
मैने मैनें धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार<br>
चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी?<br>
मैने मैनें घास की पत्ती से पूछा: तनिक हरियाली दोगी दोगी—<br>::तिनके की नोक-भर?<br>शंखपुष्पी से पूछा: उजास दोगी-दोगी—<br>::किरण की ओक-भर?<br>मैने हवा से माँगामांगा: थोड़ा खुलापन-बस खुलापन—बस एक प्रश्वास;,<br>लहर से: एक रोम की सिरहनसिहरन-भर उल्लास ।उल्लास।<br>मैने आकाश से माँगीमांगी<br>आँख की झपकी-भर असीमता - उधार ।असीमता—उधार।<br><br>
सब से उधार माँगामांगा, सब ने दिया ।<br>
यों मैं जिया और जीता हूँ<br>
क्योंकि यही सब तो है जीवनजीवन—<br>
गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला,<br>
गन्धवाही मुक्त खुलापन, <br>लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,<br>और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम का,:<br>ये सब उधार पाये हुए द्रव्य ।द्रव्य।<br><br>
रात के अकेले अन्धकार में<br>
सामने से जागा जिस में<br>
एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर <br>मुझ से पूछा था: "क्यों जी,<br>
तुम्हारे इस जीवन के<br>
इतने विविध अनुभव हैं<br>
इतने तुम धनी हो,<br>
तो मुझे थोड़ा प्यार दोगे उधार, जिसे दोगे—उधार—जिसे मैं<br>सौगुने सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगालौटाऊँगा—<br>और वह भी सौ-सौ बार गिन केके—<br>जब-जब मैं आऊँगा?"<br>
मैने कहा: प्यार? उधार?<br>
स्वर अचकचाया था, क्योंकि मेरे<br>
अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार ।<br><br> उस अनदेखे अरूप ने कहा: "हाँ,<br>क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैंहैं—<br>यह अकेलापन, यह अकुलाहट, <br>यह असमंजस, अचकचाहट,<br>:::आर्त, अनुभव,यह खोज़खोज, यह द्वैत, यह असहाय <br> :::विरह व्यथा,<br>यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना कि<br>कि जो मेरा है वही ममेतर है<br>
यह सब तुम्हारे पास है<br>
तो थोड़ा मुझे दे दो-उधार-इस दो—उधार—इस एक बारबार—<br>मुझे जो चरम आवश्यकता है ।है।<br><br>
उस ने यह कहा,<br>
अनदेखे अरूप को<br>
उधार देते मैं डरता हूँ:<br>
क्या जाने <br>यह याचक कौन है ?<br><br>