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ओ बगत-खंख रो / वासु आचार्य

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<poem>
ओ बगत
लूंआ लपटा अर खंख रो है

खंख री बीड़ मांय
औजू ताई पूरो है अकास
कांप रैयौ-आभै खानी सूं
नीं बरसण रो
धरती रो बिस्वास

च्यारूमैर-उमस परसीणौ
बळत रूं रूं
आखी जियां जूण सीजती
कैड़ी घड़ी उदास

मिन्दर री धजा हुयगी है
थपैड़ा सूं लीर लीर

मांय बिराज्यां भैंरूनाथ
न्हांय रैया है
रंजी रल्यौड़ै
तेल सिन्दूर रै बैवतै
रैलां मांय
बौला बौला
टस सूं मस नहीं हुवता

पसवाड़ै कुटिया रै मांय
बैठौ बाबौ करै है जाप
बिरखा सारू

आस्था
अर बिस्वास री आँख्यां
कदै‘ई ताकै
बाबै रै हाथ री
गौमुखी
अर कदै‘ई खंख भर्यौ आभो

म्हैं सोचू
मानसून रै जुवै रा पासा
किया कर सकैला
आपरै पख मांय
गौमुखी री माळा

अर म्हैं भी ताकू
खंख भर्यौ आभो
लीर लीर मिन्दर री धजा
अर टस सूं मस
नीं हुवती मूरत
</poem>
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