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प्रभो / जयशंकर प्रसाद

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|संग्रह=कानन-कुसुम / जयशंकर प्रसाद
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<poem>
विमल इन्दु की विशाल किरणें
प्रकाश तेरा बता रही है
अनादि तेरी अन्नत माया
जगत् को लीला दिखा रही हैं

प्रसार तेरी दया का कितना
ये देखना हो तो देखे सागर
तेरी प्रशंसा का राग प्यारे
तनंगमालाएँ गा रही हैं

तुम्हारा स्मित हो जिसे निरखना
वो देख सकता है चंद्रिका को
तुम्हारे हसने की धुन में नदियाँ
निनाद करती ही जा रही हैं
विशाल मन्दिर की यामिनी में
जिसे देखना हो दीपमाला
तो तारका-गण की ज्योती उसका
पता अनूठा बता रही हैं

प्रभो ! प्रेममय प्रकाश तुम हो
प्रकृति-पद्मिनी के अंशुमाली
असीम उपवन के तुम हो माली
घरा बराबर जता रही है
तो तेरी होवे दया दयानिधि
तो पूर्ण होता ही है मनोरथ
सभी ये कहते पुकार करके
यही तो आशा दिला रही है
</poem>
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