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वन्दना / जयशंकर प्रसाद

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|संग्रह=कानन-कुसुम / जयशंकर प्रसाद
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<poem>
जयति प्रेम-निधि ! जिसकी करूणा नौका पार लगाती है
जयति महासंगीत ! विष्व-वीणा जिसकी ध्वनि गाती है
कादम्बनी कृपा की जिसकी सुधा-नीर बरसाती है
भव-कानन की धरा हरित हो जिससे षोभा पाती है

निर्विकार लीलामय ! तेरी षक्ति न जानी जाती है
ओतप्रोत हो तो भी सबकी वाणी गुण-गुना गाती है
गद्गद्-हृदय-निःसृता यह भी वाणी दौड़ी जाती है
प्रभु ! तेरे चरणों में पुलकित होकर प्रणति जनाती है
</poem>
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