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एकटा घर / प्रवीण काश्‍यप

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|संग्रह=विषदंती वरमाल कालक रति / प्रवीण काश्‍यप
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<poem>
हमरा सँ जेना किछु हेराय गेल छल
जीवनक ओ मधूर सूक्ष्म पल सभ
जकर निरन्तर आवृति हमरा मे
प्राणक संचार करैत छल!
प्रवासोपरांत अपन खोंता में
घुरैत विहगावली कें देखि
हमरो मन परि जाइत अछि घर
आ महत्व अपन परिवारक
जतऽ पहुँचि कऽ भूलल-भटकल पथिक कें
चाही किछु कालक विश्राम!
आलिगंन चाही कोमल स्पर्शक,
दिन भरिक कठोर सत्य सँ
लड़ैत-लड़ैत, जीतैत-हारैत
ऊँच-नीचक दृष्टि सँ दूर
चाही समदृष्टि बालबोधक!
</poem>
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