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08:01, 4 अप्रैल 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रवीण काश्यप
|संग्रह=विषदंती वरमाल कालक रति / प्रवीण काश्यप
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<poem>
अहाँ नुकाइत रहैत छी
हमर दुश्चिंताक देबालक पाछाँ!
अहाँ कें बड्ड नीक लगैछ
नुकाचोरीक ई खेल!
मुदा एहि खेल में,
हमर पहुँच अहाँ धरि,
नहि अछि हमरा हाथ मे!
अहीं मात्र नियंत्रित करैत छी
एहि खेल कें।
अहाँ हमर संवेदनक सीमा कें
पर कऽ सकै’ छी
बुद्धि में अहाँक आकार मात्र टा
नहि करा सकैत अछि
हमरा अहाँक ज्ञान
हम मानैत छी,
अहाँ नहि छी हमर ज्ञानक साधन!
मुदा एक अहीं टा छी,
जे हमरा लेल ज्ञान बनबाक योग्य अछि।
</poem>