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11:30, 4 अप्रैल 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रवीण काश्यप
|संग्रह=विषदंती वरमाल कालक रति / प्रवीण काश्यप
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<poem>
एक गवाक्षहीन पाथर सँ हमहूँ प्रेम कलयहुँ
एक डिल्डोक* संग हम कतेक बेर कामदग्ध भेल छी
हम शवसम रसहीन विवर मे
अपन तनाव कें गला कऽ जीने छी।
हम विरक्त संवेदनक शिखरक
झुकल ध्वज कें जीवंत करबाक
चेष्टा मात्र कऽ सकैत छी,
मुदा कुलह घाटीक मलबा में
हम कियेक अपन यौवन नष्ट करू?
आब हृदयमे नहि मौन बैसल छथि
कोनो वैष्णो देवी!
नहि जमैत अछि कोनो ठाढ़ हिमलिंग!
मात्र बँचल अछि किछु लारग्रंथि
आ ओहि में सँ बहैेत रेबिजक विष!
करेजाक स्वाद चिखाबा लेल व्यग्र
अपन मूल सँ दूगूना भेल
दू जोड़ी केनाइन श्वानदंत!
आ संभोग करबा लेल,
संधि कें विवश, हमर मन
एक निस्पृह रोबोटिक कामपुष्प मे!
(*मशीनीस्त्री)
</poem>