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11:37, 4 अप्रैल 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रवीण काश्यप
|संग्रह=विषदंती वरमाल कालक रति / प्रवीण काश्यप
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<poem>
हम छी अधजरूआ सिकरेटक टोंटी
जकरा संपन्नताक मद से निस्पृह
केओ फेक दैत अछि कोन में।
हम बेर-बेर सुनगवाक दंश कें सहने छी
धुआँइत अपन जीवन कें जीने छी।
हम छी अधजरूआ सिकरेटक टोंटी।
जकर विपन्नता सँ तिक्त ओकर पत्नी
चलि जाइत अछि यौवनक खेल-खेलऽ लेल!
जकरा लग उतरल जवानीक स्त्री
अबैत छैक पकड़ऽ लेल हाथ-पैर
अपन कांतिहीन रूप पर लज्जाक आवरण लगौने!
हम छी अधजरूआ सिकरेटक टोंटी
जकरा शेयर बजार में
अपन सभटा धन गँवौने
कोनो हारल भूतपूर्व संपन्न व्यक्ति
बिकायल घरक अंतिम राति मे
कोन-कोन मे खोजि हेरि कऽ
अपन ठोर सँ लगबैत अछि।
हम छी अधजरूआ सिकरेटक टोंटी
हम छी हारल-थाकल व्यक्तिक अंतिम सुख।
</poem>