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पौरूष-पिशाच / प्रवीण काश्‍यप

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<poem>
हे हमर प्रिया!
अहाँक लेल हमर संबोधनक उपनाम
बिला गेल हृदयक गर्त मे
भऽ गेल हमर प्रेम सँ
अहंकार, अहाँ कें अपना पर!

मोबाइलक स्क्रीन पर फेर सँ
अछि कोनो हॉलीउडक अभिनेत्री
अहाँक फोटो पड़ल अछि
कतहु मेमेरी कार्ड में एकात!

अहाँक माय-बाप बुझैत छलाह
अहाँ कें पुत्र! से ठीके
अहाँ कें अछि पुरूषार्थक अभिमान!
अहाँ हमरा बनाबऽ चाहलहुँ स्त्री
कोनो लाचार स्त्री, विधवा-मसोमाति
मुदा से त नहि भऽ सकल
लटुआयल बिलाइ जकाँ
अहाँ कतेक घिसियायब हमरा?
पराजयक स्वप्न में हम छिड़ियायल छलहुँ
मुदा कहिया धरि?

कखनहुँ तऽ सुनहे पड़त
अहाँ कें उठैत फणिधरक फुफकार
आत्महन्ता व्यक्तित्व पाश मे
कहिया धरि हम सुखायब?
भावक समलैंगिकताक द्वंद मे
कहाँ बँचल प्रेमक कोनो रस!

अहाँक लेल प्रेम अछि गणित
सुतब, उठब जकाँ दिनचर्याक कोनो काज
जाहि सँ निवृत्त होइत रहैत छी अहाँ।
अहाँक लेल प्रेमक स्वीकारोक्ति अछि
डरक आरंभ, पलायन सत्य सँ
तखन कतऽ विलीन भऽ जाइत अछि
अहाँक पुरूषार्थ ?
</poem>
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