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12:07, 4 अप्रैल 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना
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निर्मल-निर्मल, उज्ज्वल-उज्ज्वल, गंगा को बहने दो अविरल!
*
गिरिराज हिमालय की कन्या, नित पुण्यमयी प्रातःवंद्या,
यह त्रिविध ताप से व्यथित धरा, उतरी आ कर बन ऋतंभरा.
अंबर-चुंबी शृंगों से चल, भर नभ-पथ का पावन हिम-जल!
*
जैसे कि फले हों सुव्रत-सुकृत, हम ऋणी, कृतज्ञ, हुए उपकृत,
गिरिमालाओं से अभिषिक्ता, वन-भू की दिव्यौषधि सिक्ता .
शत धाराओं से भुज भर मिल, कर रही प्रवाहित नेह तरल!
*
जो हरती रहीं कलुष-कल्मष, इन लहरों में अब घुले न विष,
तीरथ हैं सुरसरि के दो तट, इस ठौर न हों अब पाप प्रकट.
श्रद्धा-विश्वास पहरुए हों, आस्थामय कर्म बने प्रतिफल!
*
अपने तन-मन की विकृति कथा, दूषणमय जीवन की जड़ता,
इस तट मत लाना बंधु, कभी, जल में न घुलें संचित विष-सी,
चिर रहे प्रवाहित पावन जल, गंगा को बहने दो निर्मल!
*
निर्मल-निर्मल, उज्ज्वल-उज्ज्वल, बहने दो जल-धारा अविरल!
*
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