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12:18, 4 अप्रैल 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना
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|संग्रह=
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<poem>
लिख रही अविराम सरिता,
नेह के संदेश .
पंक्तियों पर पंक्ति लहराती बही जाती
सिहरती तनु अंगुलियों से आँकती
बहती नदी जो सिक्त आखर .
अर्घ्य की अंजलि समर्पित,
तुम्हें सागर!
*
क्या पता कितनी नमी
चलती हवा सोखे
उड़ा ले जाय,
वर्तुलों में घूमते इस भँवर-जल के
जाल में रह जाय.
उमड़ती अभिव्यक्तियाँ तट की बरज पा
रेत-घासों में बिखर खो जायँ!
*
आड़ बन कर जो खड़े,
इन तटों से पूछो कि जो
हर दिन-दुहपरी सुन रहे निश्वास गहरे.
लिख रही अविराम, अनथक
भीगते लिपि-अंकनों में,
तुम्हीं को संबोध!
सागर!
*
जन्म से अवसान तक
ये राह,
अनगढ़ पत्थरों से
सतत टकराती बिछलती,
विवश सी ढलती-सँभलती .
तुम्हीं से उन्मुख,
तुम्हारी ओर
सागर!
*
नियति, कितना कहाँ भटकाये.
नीर की इस सतह पर
लिखती चली जो
नाम से मेरे कभी पहुँचे,
न पहुँचे,
और ही जल-राशि में रल जाय!
या कि बाढ़ों में बहक
सब अर्थमयता,
व्यर्थ फटक उड़ाय!
*
कर बढ़ा कर,
तुम्ही कर लेना ग्रहण
जो भी बचा रह जाय .
सागर!
समा लेना
हृदय के गहरे अतल में,
बने जो निर्वाण मेरा,
लेश ही वह, हो रहे
निहितार्थ का पर्याय!
*
</poem>