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मनौती / प्रतिभा सक्सेना

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<poem>
युग-युगों के बाद ऐसा दिन दिखाया
चंडिका का मंत्र, अभिनन्दन करो रे!
आ गई बेला करो प्रस्थान रण का,
सामने आ शक्ति का वंदन करो रे,
*
महाशक्ति बने कि सम्मुख खड़ी दुर्गा
साथ हो कर हाथ के आयुध बढ़ाओ
राष्ट्र को ऐसा सुअवसर कब मिले फिर
स्वाभिमान जगे, कि अपना सिर उठाओ
*
उधर पश्चिम द्वार कब से खटखटाता,
सिन्धु नद व्याकुल प्रतीक्षा में खड़ा है
टेरती रावी, शतद्रु हिलोर भरती,
मनुजता के कत्ल का दानव अड़ा है
*
पूर्व सागर के किनारे बाहु फैला,
बंग घायल बार-बार पुकार भरता,
अंक में भर लो मुझे फिर से मिला लो
खंड-खंडित, भग्न अंतर ले बिखरता .
*
पौध विष की जड़ सहित क्षिति से उखाड़ो
बुद्धि-विद्या-ज्ञान के दुश्मन सदा के,
मनुज-संस्कृति के विदारक दस्यु-धर्मी
विश्व-द्रोही, जीव तम के, रक्त- प्यासे,
*
कृतघ्नी बन पूर्वजों का, अन्न-जल का,
जन्म-भू से द्रोह करना जो सिखा दे .
युग-युगों की साधनाओं के सुफल को,
मत्त पशु सा खूँद दे, जड़ से मिटा दे .
*
उठो शिव-संकल्प ले, अह्वान स्वर में,
चंडिका के दूत बन, दे दो चुनौती
प्रलयकारी शक्ति के इस संचरण में
पूर्ण कर लो, काल से माँगी मनौती!
*
यह विरूपित, महादेश स्वरूप पा ले,
कंठ में अपनी वही मणि-माल डाले .
और गुरु-गंभीर स्वर जय-स्तोत्र गूँजें
अवतरण नव कर चलें जीवन- ऋचाएँ!
*
</poem>