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12:57, 4 अप्रैल 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना
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|संग्रह=
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<poem>
ओ कार्टूनिस्ट!
नमन करती हूँ तुम्हारी दृष्टि को!
बड़े गहरे पैठ, खींच लाती है विसंगतियाँ .
सबको सिंगट्टा दिखाती चिढ़ाती,
टेढ़े होंठों मुस्कराते,
भीतरी तहें तक उघाड़ जाती है!
*
दुनिया एक व्यंजना है तुम्हारे लिए .
जहाँ बेतुकापन छिपने के बजाय,
उभर आता है
कुछ श्वेत-श्याम अंकनों में .
सच को उजागर करने की कला,
और विचित्र रूपाकारों की मुखर भंगिमा
कोई तुमसे सीखे!
सचमुच-
सच होता ही ऐसा है!
*
</poem>