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12:59, 4 अप्रैल 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना
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|संग्रह=
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<poem>
*
धार में हम बह नहीं सकते!
उपलमय यह देह,
अटकाती रही हर बार!
तरलता अंतर सिमट कर रह गई-
बरबस बिखर कर
ढह नहीं सकते .
*
हवाओं के साथ,
कुछ संदेश लहरें दे गईँ,
लिख छोड़तीं गीली लकीरें .
लौट कर फिर बह गईं .
जमे तट पर,
फेन औ' स्फार भरते
माटियों के जटिल रूपाकार .
बुद्बुदों में छोडते निश्वास
थिर हो रह नहीं सकते!
*
तलों की रेत मथती है,
उमड़ते वेग की
असमान गतियों में .
सिहरते, कसकसाते कण उमड़ते,
फिर समा जाते वहीं चुपचाप .
खुल कर बह नहीं सकते!
*
जमे रहना ही नियति
इस धार को देते सहारे.
जा रहा बढ़ता अरोक प्रवाह,
जल हिलकोरता
छल- छल सम्हाले .
रुको पल भर -
टेर कर कह यह नहीं सकते,
*
उपलमय यह देह,
सारे बोध पहरेदार .
जागते अटका रहे हर द्वार .
चाहो लाख लेकिन
वेग के उत्ताल नर्तन
झेलते चिर रह नहीं सकते!
साथ में पर,
बह नहीं सकते!
*
</poem>